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सर्वार्थसिद्धौ
हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥9॥
8679 अभ्युदयनिःश्रेयसार्थानां क्रियाणां विनाशक: 1 प्रयोगोऽपायः । अवद्यं गहम् । अपायश्चावद्यं चापायावद्यं तयोर्दर्शनमपायावद्यदर्शनं भावयितव्यम् । क्व ? इहामुत्र च । केषु ? हिंसादिषु । कथमिति चेदुच्यते-हिंसायां तावत्, हिंस्रो हि नित्योद्वेजनीयः सततानुबद्धर्वरश्च इह च वधबन्धपरिक्लेशादीन् प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभां गति गर्हितश्च भवतीति हिंसाया व्युपरमः श्रेयान् । तथा अनृतवादी अश्रद्धेयो भवति इहैव च जिह्वाच्छेदादीन् प्रतिलभते मिष्याम्याल्यानदुःखितेभ्यश्च बद्धवैरेभ्यो बहूनि व्यसनान्यवाप्नोति प्रेत्य चाशुभां गति गर्हितश्च भवतीति अनूतवचनादुपरमः श्रेयान् । तथा स्तेनः परद्रव्याहरणासक्तः सर्वस्योद्वेजनीयो भवति । इहैव चाभिघातवधबन्धहस्तपादकर्णनासोत्त रौष्ठच्छेदनभेदन सर्वस्वहरणादीन् प्रतिलभते प्र ेत्य चाशुभां गत गर्हितश्च भवतीति स्तेयाद् व्युपरतिः श्रेयसी । तथा अब्रह्मचारी मदविमोक्षान्तचितो वनगज इव वासितावञ्चितो विवशो बधबन्धन परिक्लेशाननुभवति मोहाभिभूतत्वाच्च कार्या - कार्यानभिज्ञो न किचित्कुशलमाचरति पराङ्गनालिङ्गनस ङ्गकृतरतिश्चेहैव वैरानुबन्धनो लिगच्छेदनवधबन्धसर्वस्वहरणादीनपायान् प्राप्नोति प्र ेत्य चाशुभां गतिमश्नुते गर्हितश्च भवति बतो
हिंसादिक पाँच दोषों में ऐहिक और पारलौकिक अपाय और अवधका दर्शन भावने योग्य
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$ 679. स्वर्ग और मोक्षकी प्रयोजक क्रियाओंका विनाश करनेवाली प्रवृत्ति अपाय है । अद्यका अर्थ गर्ह्य है । अपाय और अवद्य इन दोनोंके दर्शन की भावना करनी चाहिए। शंकाकहाँ ? समाधान - इस लोक और परलोकमें। शंका - किनमें ? समाधान - हिंसादि पाँच दोषोंमें । शंका- कैसे ? समाधान - हिंसा में यथा - हिंसक निरन्तर उद्व ेजनीय है, वह सदा वैरको बाँधे रहता है । इस लोक में वध, बन्ध और क्लेश आदिको प्राप्त होता है तथा प्ररलोकमें अशुभ गतिको प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इस लिए हिंसाका त्याग श्रेयस्कर है । असत्यवादीका कोई श्रद्धान नहीं करता । वह इस लोकमें जिह्वाछेद आदि दुःखों को प्राप्त होता है तथा असत्य बोलने से दुःखी हुए अतएव जिन्होंने वैर बाँध लिया है उनसे बहुत प्रकारकी आपत्तियों को और परलोक में अशुभ गतिको प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इसलिए असत्य वचनका त्याग श्रेयस्कर है । तथा परद्रव्यका अपहरण करनेवाले चोरका सब तिरस्कार करते हैं। इस लोकमें वह ताड़ना, मारना, बाँधना तथा हाथ, पैर, कान नाक, ऊपरके ओठका छेदना, भेदना और सर्वस्वहरण आदि दुःखोंको और परलोकमें अशुभ गतिको प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इसलिए चोरीका त्याग श्रेयस्कर है। तथा जो अब्रह्मचारी है उसका चित्त मदसे भ्रमता रहता है। जिस प्रकार वनका हाथी हथिनीसे जुदा कर दिया जाता है और विवश होकर उसे वध, बन्धन और क्लेश आदि दुःखोंको भोगना पड़ता है ठीक यही अवस्था अब्रह्मचारीकी होती है। मोहसे अभिभूत होनेके कारण वह कार्य और अकार्यके विवेकसे रहित होकर कुछ भी उचित आचरण नहीं करता । परस्त्रीके आलिंगन और संसर्ग में ही इसको रति रहती है, इसलिए यह वैको बढ़ानेवाले लिंगका छेदा जाना, मारा जाना, बाँधा आना और सर्वस्वका अपहरण किया जाना आदि दुःखोंको और परलोकमें अशुभ गतिको प्राप्त होता है तथा गर्हित भी होता है, इसलिए अब्रह्मका त्याग आत्महितकारी है । जिस प्रकार पक्षी मांसके टुकड़ेको प्राप्त करके उसको चाहनेवाले दूसरे पक्षियोंके द्वारा पराभूत होता है उसी प्रकार परिग्रहवाला भी इसी 1. - शकप्रयो - मु.
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