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-7121 $ 703] सप्तमोऽध्यायः
[279 दिहिंसोपकरणप्रदानं हिंसाप्रदानम् । हिंसारागादिप्रवर्धनदुष्टकथाश्रवणशिक्षणव्यापृतिरशुभश्रुतिः। समेकीभावे' वर्तते । तद्यथा संगतं घृतं संगतं तेलमित्युच्यते एकीभूतमिति गम्यते । एकत्वेन अयनं गमनं समयः, समय एव सामायिकं, समयः प्रयोजनमस्येति वा विगृह्य सामायिकम् । इयति देशे एतावति काले इत्यवधारिते सामायिके स्थितस्य महाव्रतत्वं पूर्ववद्वेदितव्यम् । कुतः ? अणु. स्थूलकृतहिंसादिनिवृत्तेः । संयमप्रसंग इति चेत् ? न; तद्घातिकर्मोदयसद्भावात् । महावृतत्वाभाव इति चेत् ? तन्न; उपचाराद् राजकुले सर्वगतचैत्राभिधानवत् । प्रोषधशब्दः पर्णपर्यायवाची। शब्दादिग्रहणं प्रति निवृत्तौत्सुक्यानि पंचाणीन्द्रियाण्युपेत्य तस्मिन् वसन्तीत्युपवासः । चतुर्विधा. हारपरित्याग इत्यर्थः । प्रोषधे उपवासः प्रोषधोपवासः । स्व शरीरसंस्कारकारणस्नानगन्धमाल्या. भरणादिविरहितः शुचाववकाशे साधुनिवासे चैत्यालये स्वप्रोषधोपवासगृहे वा धर्मकथाश्रवणश्रावणचिन्तनविहितान्तःकरणः सन्नुपरसेन्निरारम्भः श्रावकः । उपभोगोऽशनपानगन्धमाल्यादिः । परिभोग आच्छादनप्रावरणालंकारशयनासनगृहयानवाहनादिः तयोः परिमाणमुपभोगपरिभोगपरि माणम् । मधु' मांसं मद्यं च सदा परिहर्तव्यं त्रसधातान्निवृत्तचेतसा । 'केतक्यर्जुनपुष्पादीनि शृङ्गवेरमूलकादीनि बहुजन्तुयोनिस्थानान्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुघाताल्पफलत्वात् । अर्थ एकरूप है। जैसे 'घी संगत है, तेल संगत है' जब यह कहा जाता है तब संगतका अर्थ एकीभूत होता है। सामायिक मल शब्द समय है। इसके दो अवयव हैं सम और अय। समका अर्थ कहा ही है और अयका अर्थ गमन है । समुदायार्थ एकरूप हो जाना समय है और समय ही सामायिक है । अथवा समय अर्थात एकरूप हो जाना ही जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है। इतने देशमें और इतने काल तक इस प्रकार निश्चित की गयी सामायिकमें स्थित पुरुषके पहलेके समान महाव्रत जानना चाहिए, क्योंकि इसके सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकारके हिंसा आदि पापोंका त्याग हो जाता है । शंका -यदि ऐसा है तो सामायिकमें स्थित हुए पुरुषके सकलसंयमका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि इसके संयमका घात करनेवाले कर्मोका उदय पाया जाता है। शंका -तो फिर इसके महाव्रतका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि जैसे राजकलमें चैत्रको सर्वगत उपचारमे कहा जाता है उसी प्रकार इसके महाव्रत उपचारसे जानना चाहिए। प्रोषधका अर्थ पर्व है और पाँचों इन्द्रियोंके शब्दादि विषयोंके त्यागपूर्वक उसमें निवास करना उपवास है। अर्थात चार प्रकारके आहारका त्याग करना उपवास है। तथा प्रोषधके दिनोंमें जो उपवास किया जाता है उसे प्रोषधोपवास कहते हैं। प्रोषधोपवासी श्रावकको अपने शरीरके संस्कारके कारण स्नान, गन्ध, माला और आभरण आदिका त्याग करके किसी पवित्र स्थानमें, स रहने के स्थानमें, चैत्यालयमें या अपने प्रोषधोपवासके लिए नियत किये गये घरमें, धर्मकथाके सुनने, सुनाने और चिन्तन करने में मनको लगाकर उपवासपूर्वक निवास करना चाहिए और सब प्रकारका आरम्भ छोड़ देना चाहिए। भोजन, पान, गन्ध और माला आदि उपभोग कहलाते हैं तथा ओढना-बिछाना, अलंकार, शयन, आसन, घर, 1. "तद्य दा तावदेतार्थीभाव: सामर्थ्यन्तदैवं विग्रहः करिष्यते--संगतार्थ: समर्थः सृष्टार्थः समर्थ इति । तद्यथा संगतं घृतं संगत तैलमित्युच्यते एकीभूतमिति गम्यते ।' --पा. म. भा. 2,1,1,।। 2. चतुराहारविसर्जनमुपवासः ।' -रत्न. 4,19। 3. 'पंचानां पापानामलंक्रियारम्भगन्धपप्पाणाम् । स्नानांजननस्यानामुपवासे परिहृति कुर्यात् ।। धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान् । ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालुः ।।' --रएन. 4-17,18। 4. 'सहतिपरिहरणार्थ क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहतये । मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातः ।।' रत्न. 3,38। 5. अल्पफलबहुविघातान्मूलकमााणि शृगवेराणि । नवनीतनिम्बसुम कैतकमित्येवमहेयम् ।।' --रत्न. 3,391
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