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सर्वार्थसिद्धौ
न दुःखं न सुखं तद्धेतुर्मोक्षस्य साधने ।
मोक्षोपाये तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ॥
8 631. उक्ता असद्वेद्यात्रवहेतवः । सद्वेद्यस्य पुनः के इत्यत्रोच्यतेभूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्यस्य ॥12॥
8632. तासु तासु गतिषु कर्मोदयवशाद्भवन्तीति भूतानि प्राणिन इत्यर्थः । व्रतान्यहिंसादीनि वक्ष्यन्ते, तद्वन्तो व्रतिनः । ते द्विविधाः । अगारं प्रति निवृत्तौत्सुक्याः संयताः गृहिणश्च संयतासंयताः । अनुग्रहार्द्रीकृतचेतसः परपीडामात्मस्थामिवं कुर्वतोऽनुकम्पनमनुकम्पा । भूतेषु व्रतिषु चानुकम्पा भूतव्रत्यनुकम्पा । परानुग्रहबुद्ध्या स्वस्यातिसर्जनं वानम् । संसारकारणविनिवृत्त प्रत्यागू र्णोऽक्षीणाशयः सराग इत्युच्यते । प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तेविरतिः संयमः । सरागस्व संयम सरागोवा संयमः सरागसंयमः । 'आदि' -शब्देन संयमासंयमाकामनिर्ज राबालतपोऽनुरोधः । योगः समाधिः सम्यक्प्रणिधानमित्यर्थः । भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादीनां योगो भूतवत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः । क्रोधादिनिवृत्तिः क्षान्तिः । लोभप्रकाराणामुपरमः शौचम् । 'इति' शब्दः प्रकारार्थः । के पुनस्ते प्रकाराः । अर्हत्पूजाकरण' तत्परता बालवृद्धतपस्विवैयावृत्त्यावयः ।
[6112 § 631
लग रहा है उसे दुःख भी होता है और सुख भी । उसी प्रकार मोक्ष-साधनके जो हेतु हैं वे स्वयं दुखरूप हैं और न सुखरूप किन्तु जो मोक्षमार्गपर आरूढ़ है उसे दुःख भी होता है और सुख भी ।"
8 631. असातावेदनीयके आस्रवके कारण कहे, परन्तु सातावेदनीयके आस्रवके कारण कौन हैं ? इसी बात को बतलानेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
भूत- अनुकम्पा, व्रती अनुकम्पा, दान और सरागसंयम आदि का योग तथा क्षान्ति और शौच ये सातावेदनीय कर्मके आस्रव हैं ॥12॥
§ 632. जो कर्मोदयके कारण विविध गतियों में होते हैं वे भूत कहलाते हैं । भूत यह • प्राणीका पर्यायवाची शब्द है । अहिंसादिक व्रतोंका वर्णन आगे करेंगे। जो उनसे युक्त हैं वे व्रती कहलाते हैं । वे दो प्रकारके हैं—पहले वे जो घरसे निवृत्त होकर संयत हो गये हैं और दूसरे गृहस्थ संयतासंयत । अनुग्रहसे दयार्द्र चित्तवालेके दूसरेकी पीड़ाको अपनी ही माननेका जो भाव होता है उसे अनुकम्पा कहते हैं । सब प्राणियोंपर अनुकम्पा रखना भूतानुकम्पा है और व्रतियोंपर अनुकम्पा रखना व्रत्यनुकम्पा है । दूसरेका उपकार हो इस बुद्धिसे अपनी वस्तुका अर्पण करना दान है । जो संसारके कारणोंके त्यागके प्रति उत्सुक है, परन्तु जिसके अभी रागके संस्कार नष्ट नहीं हुए हैं वह सराग कहलाता है । प्राणी और इन्द्रियोंके विषय में अशुभ प्रवृत्तिके त्यागको संयम कहते हैं। सरागका संयम या रागसहित संयम सरागसंयम कहलाता है । सूत्रमें सरागसंयमके आगे दिये गये आदि पदसे संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतपका ग्रहण होता है । योग, समाधि और सम्यक्प्रणिधान ये एकार्थवाची नाम हैं। पहले जो भूतानुकम्पा, व्रत्यनुकम्पा, दान और सरागसंयम 'आदि' कहे हैं इनका योग अर्थात् इनमें भले प्रकार मन लगाना भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोग है । क्रोधादि दोषोंका निराकरण करना क्षान्ति है । तथा लोभके प्रकारोंका त्याग करना शौच है । सूत्रमें आया हुआ 'इति' शब्द प्रकारवाची है । वे प्रकार हैं ? अरहंतकी पूजा करने में तत्परता तथा बाल और बृद्ध तपस्वियोंकी वैयावृत्त्य आदि
1. करणपरता- मु.
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