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-61118 630] - षष्ठोऽध्यायः
[253 गुणस्मरणानुकीर्तनपूर्वकं स्वपरानुग्रहाभिलाषविषयमनुकम्पाप्रचुरं रोदनं परिदेवनम् । ननु च शोकादीनां दुःखविशेषत्वाद् दुःखग्रहणमेवास्तु ? सत्यमेवम् ; तथापि कतिपयविशेषप्रतिपादनेन दुःखजात्य'नुविधानं क्रियते । यथा गौरित्युक्ते अनिर्माते विशेषे तत्प्रतिपादनार्थं खण्डमुण्डकृष्णशुक्लाजुपादानं क्रियते तथा दुःखविषयास्रवासंख्येयलोकभेदसंभवाद् दुःखमित्युक्ते विशेषानिर्जानात्कतिपयविशेषनिर्देशेन तद्विशेषप्रतिपत्तिः क्रियते। तान्येतानि दुःखादीनि 'क्रोधाद्यावेशादात्मस्थानि भवन्ति परस्थान्युभयस्थानि च । एतानि सर्वाण्यसद्वेद्यास्रवकारणानि वेदितव्यानि। अत्र चोद्यते--यदि दुःखादीन्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वद्यास्रवनिमित्तानि, किमर्थमार्हतः केशलुञ्चनानशनातपस्थानादीनि दुःखनिमित्तान्यास्थीयन्ते परेषु च प्रतिपाद्यन्ते इति ? नैष दोषः-अन्तरङ्गक्रोधाद्यावेशपूर्वकाणि दुःखादीन्यसद्वेद्यास्रवनिमित्तानोति विशेष्योक्तत्वात् । यथा कस्यचिद् भिषजः परमकरुणाशस्य निःशल्यस्य संयतस्योपरि गण्डं पाटयतो दुःखहेतुत्वे सत्यपि न पापबन्धो बाह्यनिमित्तमात्रादेव भवति । एवं संसारविषयमहादुःखादुद्विग्नस्य भिक्षोस्तन्निवृत्त्युपायं प्रति समाहितमनस्कस्य शास्त्रविहिते कर्मणि प्रवर्तमानस्य संक्लेशपरिणामाभावाद् दुःखनिमित्तत्वे सत्यपि न पापबन्धः। उक्तं च--
"न दुःखं न सुखं यद्वद्धतुदृष्टश्चिकित्सिते। चिकित्सायां तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ।।
होता है, उससे खुलकर रोना आक्रन्दन है । आयु, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वासका जुदा कर देना वध है । संक्लेशरूप परिणामोंके होनेपर गुणोंका स्मरण और प्रशंसा करते हुए अपने और
उपकारकी अभिलाषासे करुणाजनक रोना परिदेवन है। शंका-शोकादिक दुःखके भेद हैं, इसलिए दुःखका ग्रहण करना पर्याप्त है ? समाधान-यह कहना सही है तो भी यहाँ कुछ भेदोंका कथन करके दुःखकी जातियाँ दिखलायी हैं । जैसे गौ ऐसा कहनेपर अवान्तर भेदोंका ज्ञान नहीं होता, इसलिए खांडी, मुडी, काली, सफेद आदि विशेषण दिये जाते हैं उसी प्रकार दुःखविषयक आस्रव असंख्यात लोकप्रमाण संभव हैं । परन्तु दुःख इतना कहनेपर सब भेदोंका ज्ञान नहीं होता अतएव कुछ भेदोंका उल्लेख करके उनको पृथक-पृथक् जान लिया जाता है। क्रोधादिकके आवेशवश ये दुःखादिक कभी अपनेमें होते हैं, कभी दूसरोंमें होते हैं और कभी दोनोंमें होते हैं । ये सब असाता वेदनीयके आस्रवके कारण जानने चाहिए । शंका-यदि अपनेमें, परमें या दोनोंमें स्थित दुःखादिक असातावेदनीयके आस्रवके कारण हैं तो अरिहंतके मतको माननेवाले मनुष्य दुःखको पैदा करनेवाले केशलोंच, अनशन और आतपस्थान (आतापनयोग) आदिमें क्यों विश्वास करते हैं और दूसरोंको इनका उपदेश क्यों देते हैं ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि अन्तरंगमें क्रोधादिकके आवेशसे जो दुःखादिक पैदा होते हैं वे असातावेदनीयके आस्रवके कारण हैं इतना यहाँ विशेष कहा है । जैसे अत्यन्त दयालु किसी वैद्यके फोड़ेकी चीर-फाड़ और मरहमपट्टी करते समय निःशल्य संयतको दुःख देनेमें निमित्त होनेपर भी केवल बाह्य निमित्त मात्रसे पापबन्ध नहीं होता उसी प्रकार जो भिक्षु संसार-सम्बन्धी दुःखसे उद्विग्न है और जिसका मन उसके दूर करनेके उपायोंमें लगा हुआ है उसके शास्त्रविहित कर्ममें प्रवृत्ति करते समय संक्लेशरूप परिणामोंके नहीं होनेसे पापबन्ध नहीं होता। कहा भी है-"जिस प्रकार चिकित्साके साधन न स्वयं दुःखरूप देखे जाते हैं और न सुखरूप, किन्तु जो चिकित्सामें 1. --जात्यन्तरविधा-- मु.। 2. क्रोधावेशा- मु.।
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