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[6115 § 637
स्रवो वेदितव्यः । तत्र स्वपरकषायोत्पादनं तपस्विजनवृत्तदूषणं संक्लिष्टलिङ्गव्रतधारणादिः कषायवेदनीयस्यास्त्र वः । सद्धर्मोपहसनदीनातिहास' कन्दर्पोपहासबहुविप्रलापोपहासशीलतादिर्हास्यवेदनीयस्य । विचित्रक्रीडन परताव्रतशीला रुच्यादिः रतिवेदनीयस्य । परारतिप्रादुर्भावनर तिविनाशनपापशीलसंसर्गादिः अरतिवेदनीयस्य । स्वशोकोत्पादन परशोकप्लुताभिनन्दनादिः शोकवेदनीयस्य । स्वभयपरिणामपरभयोत्पादनादिर्भय वेदनीयस्य । कुशलक्रियाचारजुगुप्सापरिवादशीलत्वादिर्जुगुप्सावेदनीयस्य | अलीकाभिधायितातिसंधानपरत्वपररन्ध्र 'प्रेक्षित्व प्रवृद्धरागादिः स्त्रीवेदनीयस्य । स्तोकको धानुत्सुकत्वस्वदार संतोषादिः पुंवेदनीयस्य । प्रचुरकषायागुह्येन्द्रियव्यपरोपणपराङ्गनावस्कन्दादिर्नपुंसक वेदनीयस्य ।
सर्वार्थसिद्धौ
8637. निर्दिष्टो मोहनीयस्यास्त्रवभेदः । इदानीं तदनन्तरनिर्दिष्टस्यायुष' आस्रवहेतौ वक्तव्ये आद्यस्य नियतकालपरिपाकस्यायुषः कारणप्रदर्शनार्थमिदमुच्यते
बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥15॥
8638. आरम्भः प्राणिपीडाहेतुर्व्यापारः । ममेदंबुद्धिलक्षणः परिग्रहः । आरम्माश्च परिग्रहाश्च आरम्भपरिग्रहाः । बहव आरम्भपरिग्रहा यस्य स बह्वारम्भपरिग्रहः । तस्य भावो
उदयसे जो आत्माका तीव्र परिणाम होता है वह चारित्रमोहनीयका आस्रव जानना चाहिए । स्वयं कषाय करना, दूसरोंमें कषाय उत्पन्न करना, तपस्वीजनोंके चारित्रमें दूषण लगाना, संक्लेशको पैदा करनेवाले लिंग (वेष) और व्रतको धारण करना आदि कषायवेदनीयके आस्रव हैं । सत्य धर्मका उपहास करना, दीन मनुष्यकी दिल्लगी उड़ाना, कुत्सित रागको बढ़ानेवाला हँसी मजाक करना, बहुत बकने और हँसने की आदत रखना आदि हास्यवेदनीयके आस्रव हैं । नाना प्रकारकी क्रीड़ाओंमें लगे रहना, व्रत और शीलके पालन करनेमें रुचि न रखना आदि रतिवेदनीयके आस्रव हैं । दूसरोंमें अरति उत्पन्न हो और रतिका विनाश हो ऐसी प्रवृत्ति करना और पापी लोगोंकी संगति करना आदि अरतिवेदनीयके आस्रव हैं। स्वयं शोकातुर होना, दूसरोंSh शोकको बढ़ाना तथा ऐसे मनुष्योंका अभिनन्दन करना आदि शोकवेदनीयके आस्रव हैं । भयरूप अपना परिणाम और दूसरेको भय पैदा करना आदि भयवेदनीयके आस्रवके कारण हैं । सुखकर क्रिया और सुखकर आचारसे घृणा करना और अपवाद करने में रुचि रखना आदि जुगुप्सावेदनीयके आस्रव हैं। असत्य बोलने की आदत, अतिसन्धानपरता, दूसरे के छिद्र ढूंढ़ना और बढ़ा हुआ राग आदि स्त्रीवेदनीयके आस्रव हैं । क्रोधका अल्प होना, ईर्ष्या नहीं करना, अपनी स्त्री में सन्तोष करना आदि पुरुषवेदनीयके आस्रव हैं । प्रचुर मात्रामें कषाय करना, गुप्त इन्द्रियोंका विनाश करना और परस्त्री से बलात्कार करना आदि नपुंसक वेदनीयके आस्रव हैं । 8637. मोहनीयके आस्रवके भेदोंका कथन किया। इसके बाद आयुकर्मके आस्रव के कारणोंका कथन क्रमप्राप्त है । उसमें भी पहले जिसका नियत काल तक फल मिलता है उस आयु आवके कारण दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं—
बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रहपनेका भाव नारकायुका आस्रव है ||150
8638. प्राणियोंको दुख पहुँचानेवाली प्रवृत्ति करना आरम्भ है । यह वस्तु मेरी है इस प्रकारका संकल्प रखना परिग्रह है। जिसके बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह हो वह बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह वाला कहलाता है और उसका भाव बह्वारम्भपरिग्रहत्व है । हिंसा आदि 1. नातिहासबहु-- मु. 2. --त्पादनं परशोकाविष्करणं शोक-- ता. । 3. --रत्वं पररन्ध्रापे - मु. । --रत्वं रन्ध्रापे- आ. । 4. -- नास्कन्दा-- मु. 5. निर्दिष्टस्यायुषः कारण- मु. 1
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