________________
-6118 8 644] षष्ठोऽध्यायः
1257 बह्वारम्मपरिग्रहत्वम् । हिसादिक्रूरकर्माजस्रप्रवर्तनपरस्वहरवषयातिगृद्धिकृष्णलेश्याभिजातरौद्रध्यानमरणकालतादिलक्षणो नारकस्यायुष आस्रवो भवति । 8639. आह, उक्तो नारकस्यायुष आस्रवः । तैर्यग्योनस्येदानों वक्तव्य इत्यत्रोच्यते
__ माया तैर्यग्योनस्य ॥16॥ 8640, चारित्रमोहकर्मविशेषस्योदयादाविर्भूत आत्मनः कुटिलभावो माया निकृतिः तैर्यग्योनस्यायुष आस्रवो वेदितव्यः । तत्प्रपञ्चो मिथ्यात्वोपेतधर्मदेशना निःशीलतातिसंधानप्रियता नीलकापोतलेश्यार्तध्यानमरणकालतादिः ।
8641. आह, व्याख्यातस्तैर्यग्योनस्यायुष आस्रवः । इदानीं मानुषस्यायुषः को हेतुरित्यत्रोच्यते
अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥17॥ 8642. नारकायुरास्रवो व्याख्यातः । तद्विपरीतो मानुषस्यायुष इति संक्षेपः । तद्व्यासः-- विनीतस्वभावः प्रकृतिभद्रता प्रगुणव्यवहारता तनुकषायत्वं मरणकालासंक्लेशतादिः। 8643. किमेतावानेव मानुषस्यायुष आस्रव इत्यत्रोच्यते
स्वभावमार्दवं च ॥18॥ 8644. मृदोर्भावो मार्दवम् । स्वभावेन मार्दवं स्वभावमार्दवम् । उपदेशानपेक्षमित्यर्थः । कर कार्योंमें निरन्तर प्रवृत्ति, दूसरेके धनका अपहरण, इन्द्रियोंके विषयोंमें अत्यन्त आसक्ति तथा मरनेके समय कृष्ण लेश्या और रौद्रध्यान आदिका होना नरकायुके आस्रव हैं।
8639. नरकायुका आस्रव कहा। अब तिर्यंचायुका आसव कहना चाहिए, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैंमाया तियंचायुका आस्रव है ।।16।।
8640. माया नामक चारित्रमोहनीयके उदयसे जो आत्मामें कुटिल भाव पैदा होता है वह माया है। इसका दूसरा नाम निकृति है । इसे तिर्यंचायुका आस्रव जानना चाहिए। इसका विस्तारसे खुलासा-धर्मोपदेशमें मिथ्या बातोंको मिलाकर उनका प्रचार करना, शीलरहित जीवन बिताना, अतिसंधानप्रियता, तथा मरणके समय नील व कापोत लेश्या और आर्तध्यानका होना आदि तिर्यंचायुके आस्रव हैं।
$641. तिथंचायुके आस्रव कहे । अब मनुष्यायुका क्या आस्रव है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अल्प आरम्भ और अल्प परिप्रहपनेका भाव मनुष्यायुके आस्रव हैं ॥17॥
8642. नरकायुका आस्रव पहले कह आये हैं । उससे विपरीत भाव मनुष्यायुका आस्रव है। संक्षेपमें यह इस सत्रका अभिप्राय है। उसका विस्तारसे खलासा-स्वभावका विन भद्र प्रकृतिका होना, सरल व्यवहार करना, अल्प कषायका होना तथा मरणके समय संक्लेशरूप परिणतिका नहीं होना आदि मनुष्यायुके आस्रव हैं।
643. क्या मनुष्यायुका आस्रव इतना ही है या और भी है। इसी बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
स्वभावकी मृदुता भी मनुष्यायुका आस्रव है ॥18॥
8644. मृदुका भाव मार्दव है। स्वभावसे मार्दव स्वभाव मार्दव है। आशय यह है कि किसीके समझाये-बुझाये मृदुता अपने जीवनमें उतरी हुई हो इसमें किसीके उपदेशकी आवश्यकता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org