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सर्वार्थसिद्धौ
[6126 6 6588658. 'तथ्यस्य वातथ्यस्य वा दोषस्योद्भावनं प्रति इच्छा निन्दा । गुणोद्भावनाभिप्रायः प्रशंसा । यथासंख्य मभिसंबन्धः-परनिन्दा आत्मप्रशंसेति । प्रतिबन्धकहेतुसंनिधाने सति अनुभूतवृत्तिता अनाविर्भाव उच्छादनम् । प्रतिबन्धकाभावे प्रकाशवृत्तिता उद्भावनम् । अत्रापि च यथाक्रममभिसंबन्धः--सद्गुणोच्छादनमसद्गुणोद्भावनमिति । तान्येतानि नोचैर्गोत्रस्यास्रवकारणानि वेदितव्यानि। 8659. अथोच्चर्गोत्रस्य क आस्रवविधिरत्रोच्यते
तद्विपर्ययो नीचैवृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥26॥ 8660. 'तत्'इत्यनेन प्रत्यासत्ते चैगोत्रस्यासवः प्रतिनिदिश्यते। अन्येन प्रकारेण वृत्तिविपर्ययः । तस्य विपर्ययस्तद्विपर्ययः । कः पुनरसौ विपर्ययः? आत्मनिन्दा, परप्रशंसा, सद्गुणोद्भावनमसद्गुणोच्छादनं च । गुणोत्कृष्टेषु विनयेनावनतिर्नीचैवृत्तिः। विज्ञानादिभिरुत्कृष्टस्यापि सतस्तत्कृतमदविरहोऽनहंकारतानुत्सेकः । तान्येतान्युत्तरस्योच्चैर्गोत्रस्यास्रवकारणानि भवन्ति । 8661. अथ गोत्रानन्तरमुद्दिष्टस्यान्तरायस्य क आस्रव इत्युच्यते
विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥27॥ 8662. दानादीन्युक्तानि 'दानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च' इत्यत्र । तेषां विहननं
8658. सच्चे या झूठे दोषको प्रकट करनेकी इच्छा निन्दा है। गुणोंके प्रकट करनेका भाव प्रशंसा है। पर और आत्मा शब्दके साथ इनका क्रमसे सम्बन्ध होता है । यथा परनिन्दा और आत्मप्रशंसाहै। रोकनेवाले कारणोंके रहनेपर प्रकट नहीं करनेकी वृत्ति होना उच्छादन है और रोकनेवाले कारणोंका अभाव होनेपर प्रकट करनेकी वृत्ति होना उद्भावन है। यहाँ भी क्रमसे सम्बन्ध होता है। यथा--सद्गुणोच्छादन और असद्गुणोद्भावन । इन सब का नीच गोत्रके आसवके कारण जानना चाहिए।
8659. अब उच्च गोत्रके आस्रवके कारण क्या हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, सद्गुणोंका उद्भावन और असद्गुणोंका उच्छादन तथा नम्रवृत्ति और अनुत्सेक ये उच्च गोत्रके आस्रव हैं ॥2॥
$ 660. इसके पहले नीच गोत्रके आस्रवोंका उल्लेख कर आये हैं, अतः 'तत्' इस पदसे उनका ग्रहण होता है । अन्य प्रकारसे वृत्ति होना विपर्यय है । नीच गोत्रका जो आस्रव कहा है उससे विपर्यय तद्विपर्यय है। शंका-वे विपरीत कारण कौन हैं ? समाधान-आत्मनिन्दा, परप्रशंसा, सद्गुणोंका उद्भावन और असद्गुणोंका उच्छादन । जो गुणोंमें उत्कृष्ट हैं उनके विनयसे नम्र रहना नीचैर्वृत्ति है । ज्ञानादिकी अपेक्षा श्रेष्ठ होते हुए भी उसका मद न करना अर्थात् अहंकार रहित होना अनुत्सेक है। ये उत्तर अर्थात् उच्च गोत्रके आस्रवके कारण हैं।
8661. अब गोत्रके बाद क्रम प्राप्त अन्तराय कर्मका क्या आस्रव है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
दानादिकमें विघ्न डालना अन्तराय कर्मका आस्रव है ॥27॥
8662. 'दानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च' इस सूत्रकी व्याख्या करते समय दानादिकका 1. तथ्यस्य वा दो-- मु.। 2. -संख्यमिति सम्ब- आ, दि. 1, दि. 2। 3. -भावेन प्रकाश- मु.। 4. -गोत्रास्रवः आ, दि. 1, दि. 21 5. -अनेन मु.।
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