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षष्ठोऽध्यायः
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चत्वारः कषायाः। पञ्चावतानि । पञ्चविंशतिः क्रिया इति। तत्र पञ्चेन्द्रियाणि स्पर्शनादीन्युक्तानि। चत्वारः कषायाः क्रोधादयः। पञ्चावतानि प्राणव्यपरोपणादोनि वक्ष्यन्ते । पञ्चविंशतिः क्रिया उच्यन्ते-चैत्यगुरुप्रवचनपूजादिलक्षणा सम्यक्त्ववर्धनी-क्रिया सम्यक्त्वक्रिया । अन्यदेवतास्तवनादिरूपा मिथ्यात्वहेतुकी प्रवृत्तिमिथ्यात्वक्रिया। गमनागमनादिप्रवर्तनं कायादिभिः प्रयोगक्रिया। संयतस्य सतः अविरति प्रत्याभिमुख्यं समादानक्रिया। ईर्यापथनिमित्तर्यापथक्रिया। ता एताः पञ्च क्रियाः। क्रोधावेशात्प्रादोषिको क्रिया। प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्यमः कायिको क्रिया। हिंसोपकरणादानाधिकरणिकी क्रिया। दुःखोत्पत्तितन्त्रत्वात्पारितापिकी क्रिया। आयुरिन्द्रियबलोच्छ्वासनिःश्वासप्राणानां वियोगकरणात्प्राणातिपातिकी क्रिया। ता एताः पञ्च क्रियाः। रागार्दीकृतत्वात्प्रमादिनो रमणीयरूपालोकनाभिप्रायो दर्शनक्रिया। प्रमादवशात्स्पष्टव्यसंचेतनानुबन्धः स्पर्शनक्रिया। अपूर्वाधिकरणोत्पादनात्प्रात्ययिको क्रिया। स्त्रीपुरुषपशुसम्पातिदेशेऽन्तमलोत्सर्गकरणं समन्तानुपातक्रिया। अप्रमृष्टादृष्टभूमौ कायादिनिक्षेपोऽनाभोगक्रिया । ता एताः पञ्च क्रियाः। यां परेण निर्वा' क्रियां स्वयं करोति सा स्वहस्तक्रिया। पापादानादिप्रवृत्तिविशेषाभ्यनुज्ञानं निसर्गक्रिया। पराचरितसावधादिप्रकाशनं विदारणक्रिया। यथोक्तामाज्ञामावश्यकादिषु चारित्रमोहोदयात्कर्तुमशक्नुवतोऽन्यथाप्ररूपणादाज्ञाव्यापादिको क्रिया । शाठ्यालस्याभ्यां प्रवचनोपदिष्टविधिकर्तव्यतानादरोऽनाकाङ्क्षक्रिया। ता एताः पञ्च क्रियाः। छेदनभेदनवि शसनादि
इन्द्रियाँ पाँच हैं, कषाय चार हैं, अव्रत पाँच हैं और क्रिया पच्चीस हैं। इनमें से स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियोंका कथन पहले कर आये हैं । क्रोधादि चार कषाय हैं और हिंसा आदि पाँच अव्रत आगे कहेंगे । पच्चीस क्रियाओंका वर्णन यहाँ करते हैं-चैत्य, गुरु और शास्त्रकी पूजा आदिरूप सम्यक्त्वको बढ़ानेवाली सम्यक्त्वक्रिया है। मिथ्यात्वके उदयसे जो अन्यदेवताके स्तवन आदि रूप क्रिया होती है वह मिथ्यात्व क्रिया है। शरीर आदि द्वारा गमनागमन आदिरूप प्रवृत्ति प्रयोगक्रिया है । संयतका अविरतिके सम्मुख होना समादान क्रिया है। ईर्यापथकी कारणभूत क्रिया ईर्यापथ क्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं । क्रोधके आवेशसे प्रादोषिकी क्रिया होती है। दुष्ट भाव युक्त होकर उद्यम करना कायिकी क्रिया है। हिंसाके साधनोंको ग्रहण करना आधिकरणिकी क्रिया है। जो दुःखकी उत्पत्तिका कारण है वह पारितापिकी क्रिया है। आयु, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छवास रूप प्राणोंका वियोग करनेवाली प्राणातिपातिकी क्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं । रागवश स्नेहसिक्त होनेके कारण प्रमादीका रमणीय रूपके देखनेका अभिप्राय दर्शनक्रिया है। प्रमादवश स्पर्श करने लायक सचेतन पदार्थका अनुबन्ध स्पर्शन क्रिया है। नये अधिकर उत्पन्न करना प्रात्ययिकी क्रिया है। स्त्री, पुरुष और पशओंके जाने, आने, उठने और बैठनेके स्थानमें भीतरी मलका त्याग करना समन्तानुपात क्रिया है। प्रमार्जन और अवलोकन नहीं की गयी भूमिपर शरीर आदिका रखना अनाभोग क्रिया है । ये पांच क्रिया हैं। जो क्रिया दूसरों द्वारा करनेकी हो उसे स्वयं कर लेना स्वहस्तक्रिया है। पापादान आदिरूप प्रवृत्ति विशेषके लिए सम्मति देना निसर्ग क्रिया है। दूसरेने जो सावद्यकार्य किया हो उसे प्रकाशित करना विदारणक्रिया है। चारित्रमोहनीयके उदयसे आवश्यक आदिके विषयमें शास्त्रोक्त आज्ञाको न पाल सकनेके कारण अन्यथा निरूपण करना आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है। धूर्तता और आलस्यके कारण शास्त्रमें उपदेशी गयी विधि करनेका अनादर अनाकांक्षक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं।
1.-शतिक्रिया म.। 2. हेतुका कर्मप्रव-दि. 1, दि. 2, आ.। 3. क्रिया । सत्त्वदुःखो-- ता., ना., मु.। 4. बलप्राणानां-- मु.। 5.-श्यकादिचारि- मु.। 6. विसर्जनादि-- आ., दि. 1, दि. 2।
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