________________
248] सर्वार्थसिद्धी
[6168 619 क्रियापरत्वमन्येन वारम्भे क्रियमाणे प्रहर्षः प्रारम्भक्रिया। परिग्रहाविनाशार्था पारिबाहिकी क्रिया।
शनादिष निकृतिर्वञ्चनं मायाक्रिया। अन्यं मिथ्यादर्शनक्रियाकरणकारणाविष्ट प्रशंसादिभिर्दढयति यथा साधु करोषोति सा मिथ्यादर्शनक्रिया। संयमघातिकर्मोदयवशादनिवृत्तिरप्रत्याख्यानक्रिया । ता एताः पञ्च क्रियाः । समुदिताः पञ्चविंशतिक्रियाः । एतानीन्द्रियादीनि कार्यकारणभेदाभेदमापद्यमानानि सांपरायिकस्य कर्मण आस्रवद्वाराणि भवन्ति ।
8619. अत्राह, योगत्रयस्य सर्वात्मकार्यत्वात्सर्वेषां संसारिणां साधारणः, ततो बन्धफलानुभवनं प्रत्यविशेष इत्यत्रोच्यते-नैतदेवम् । यस्मात् सत्यपि प्रत्यात्मसंभवे तेषां जीवपरिभ्योऽनन्तविकल्पेभ्यो विशेषोऽभ्यनुज्ञायते कथमिति चेदुच्यते
तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणबीर्यविशेषेभ्यस्तविशेषः ॥6॥
8620: बाह्याभ्यन्तरहेतूदीरणवशादुद्रिक्तः परिणामस्तीनः । तद्विपरीतो मन्दः । अयं प्राणी मया हन्तव्य इति ज्ञात्वा प्रवृत्तितिमित्युच्यते । मदात्प्रमादाद्वानवबुध्य प्रवृत्तिरज्ञातम् । अधिक्रियन्तेऽस्मिन्नर्था इत्यधिकरणं द्रव्यमित्यर्थः । द्रव्यस्थ स्वशक्तिविशेषो वीर्यम् । भावशब्दः प्रत्येक परिसमाप्यते-तीव्रभावो मन्दभाव इत्यादिः । एतेभ्यस्तस्थालवस्य विशेषो भवति । कारणभेदाद्धि कार्यभेद इति ।
छेदना, भेदना और मारना आदि क्रिया में स्वयं तत्पर रहना और दुसरेके करनेपर हर्षित होना प्रारम्भ क्रिया है। परिग्रहका नाश न हो इसलिए जो क्रिया की जाती है वह पारिग्राहिकी क्रिया है। ज्ञान, दर्शन आदिके विषयमें छल करना मायाक्रिया है। मिथ्यादर्शनके साधनोंसे युक्त पुरुषको प्रशंसा आदिके द्वारा दृढ़ करना कि 'तू ठीक करता है' मिथ्यादर्शन क्रिया है। संयमका घात करनेवाले कर्मके उदयसे त्यागरूप परिणामोंका न होना अप्रत्याख्यानक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं। ये सब मिलकर पच्चीस क्रियाएँ होती हैं। कार्य-कारणके भेदसे अलग-अलग भेदको प्राप्त होकर ये इन्द्रियादिक साम्परायिक कर्मके आस्वके द्वार हैं।
8619. शंका-तीनों योग सब आत्माओंके कार्य हैं, इसलिए वे सब संसारी जीवोंके समान रूपसे प्राप्त होते हैं, इसलिए कर्मबन्धके फलके अनुभवके प्रति समानता प्राप्त होनी चाहिए ? समाधान- यह बात ऐसी नहीं है, क्योंकि यद्यपि योग प्रत्येक आत्माके होता है, परन्तु जीवोंके परिणामोंके अनन्त भेद हैं, इसलिए कर्मवन्धके फलके अनुभवको विशेषता माननो पड़तो है। शंका--किस प्रकार ? समाधान--अब अगले सूत्रद्वारा इसी बातका समाधान करते हैं
तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्यविशेषके भेदसे उसकी (आस्रवको) विशेषता होती है ॥6॥
6 620. बाह्य और आभ्यन्तर हेतुकी उदीरणाके कारण जो आवेगयुक्त परिणाम होता है वह तीव्र भाव है । मन्द भाव इससे उलटा है । इस प्राणीका मुझे हनन करना चाहिए इस प्रकार जानकर प्रवृत्ति करना ज्ञात भाव है। मद या प्रमादके कारण बिना जाने प्रवृत्ति करना अज्ञात भाव है। जिसमें पदार्थ रखे जाते हैं वह अधिकरण है। यहाँ अधिकरणसे द्रव्यका ग्रहण किया है। द्रव्यकी अपनी शक्तिविशेष वीर्य है । सूत्र में जो भाव शब्द आया है वह सब शब्दोंके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा-तीव्रभाव, मन्दभाव इत्यादि । इन सब कारणोंसे आश्रवमें विशेषता आ जाती है, क्योंकि कारणके भेदसे कार्य में भेद होता है। 1. दर्शनकरण- ता., ना., मु.। 2. --रणस्य ततो मु.। 3. प्राणी हन्त- मु., ता., ना.। 4. वा क्रिय-- म.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org