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सर्वार्थसिद्धौ
[619 § 625
कषायाः क्रोधादयः । विशिष्यतेऽर्थोऽयन्तरादिति विशेषः । स प्रत्येकमभिसंबध्यते - संरम्भविशेषः समारम्भविशेष इत्यादि । आद्यं जीवाधिकरणमेतविशेषः 'भिद्यते' इति वाक्यशेषः । एते चत्वारः सुजन्तास्त्र्यादिशब्दा यथाक्रममभिसंबध्यन्ते - संरम्भसमारम्भारम्भास्त्रयः, योगास्त्रयः, कृतकारितानुमतास्त्रयः, कषायाश्चत्वार इति । एतेषां गणनाभ्यावृत्तिः सुचा द्योत्यते । एकश इति वीप्सानिर्देशः । एकैकं व्यादीन् भेदान् नयेदित्यर्थः । यद्यथा - क्रोधकृत काय संरम्भः मानकृतकाय संरम्भः मायाकृतकायसंरम्भः लोभकृतकायसंरम्भः क्रोधकारितकायसंरम्भः मानका रितकायसंरम्भः मायाकारितका संरम्भः लोभकारितकायसंरम्भः क्रोधानुमतकायसंरम्भः मानानुमतकायसंरम्भः मायानुमतकाय संरम्भः लोभानुमतकायसंरम्भश्चेति द्वादशधा कायसंरम्भः । एवं वाग्योगे मनोयोगे च द्वादशधा संरम्भः । त एते संपिण्डिताः षट्त्रिंशत्, तथा समारम्भा अपि षट्त्रिंशत्, आरम्भा अपि षट्त्रिंशत् । एते संपिण्डिता जीवाधिकरणात्रवभेदा अष्टोत्तरशतसंख्याः संभवन्ति । 'च' शब्दोऽनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान संज्वलनकषायभेद कृतान्तर्भेदसमुच्चयार्थः । 8625. परस्याजीवाधिकरणस्य भेदप्रतिपत्त्यर्थमाह-
निर्वर्तनानिक्षेप संयोगनिसर्गाद्विचतुद्वित्रिभेदाः परम् ॥9॥
8626. निर्वर्त्यत इति निर्वर्तना निष्पादना । निक्षिप्यत इति निक्षेपः स्थापना । संयुज्यते इति संयोगो मिश्रीकृतम् । निसृज्यत इति निसर्गः प्रवर्तनम् । एते द्वयादिभिर्यथाक्रममभिसंबध्यन्ते-
प्रयोगको अपेक्षा दिखलानेके लिए 'कारित' वचन रखा है । तथा प्रयोजकके मानस परिणामको दिखलानेके लिए अनुमत शब्द रखा हैं । क्रोधादि कषायोंके लक्षण कहे जा चुके हैं । जिससे एक अर्थ दूसरे अर्थसे विशेषताको प्राप्त हो वह विशेष है । इसे प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए यथा संरम्भविशेष समारम्भविशेष आदि । यहाँ 'भिद्यते' यह वाक्यशेष है जिससे यह अर्थ होता है कि पहला जीवाधिकरण इन विशेषताओंसे भेदको प्राप्त होता है । सुच् प्रत्ययान्त ये चारों 'तीन' आदि शब्द क्रमसे सम्बन्धको प्राप्त होते हैं । यथा-संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ ये तीन; योग तीन; कृत, कारित और अनुमत ये तीन और कषाय चार। इनके गणनाकी पुनरावृत्ति 'सुच' प्रत्यय-द्वारा प्रकट की गयी है । 'एकशः' यह वीप्सा में निर्देश है । तात्पर्य यह है कि तीन आदि भेदोंको प्रत्येकके प्रति लगा लेना चाहिए। जैसे क्रोधकृतकायसंरम्भ, मानकृतकायसंरम्भ, मायाकृतकायसंरम्भ, लोभकृतकायसंरम्भ, क्रोधकारितकायसंरम्भ, मानकारितकाय़संरम्भ, मायाकारितकायसंरम्भ, लोभकारितकायसंरम्भ, क्रोधानुमतकायसंरम्भ, मानानुमतकायसंरम्भ, मायानुमतकायसंरम्भ, लोभानुमतकायसंरम्भ। इसप्रकार कायसंरम्भ बारह प्रकारका है । इसीप्रकार वचनयोग और मनोयोगकी अपेक्षा संरम्भ बारह-बारह प्रकारका है । ये सब मिला कर छत्तीस भेद होते हैं । इसी प्रकार समारम्भ और आरम्भके भी छत्तीस - छत्तीस भेद होते हैं। ये सब मिल कर जीवाधिकरणके 108 भेद होते हैं । 'च' शब्द अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलनरूप कषायोंके अवान्तर भेदोंका समुच्चय करनेके लिए दिया है । 8625. अब दूसरे अजीवाधिकरणके भेदोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-पर अर्थात् अजीवाधिकरण क्रमसे दो, चार, दो और तीन भेदवाले निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्गरूप है ||9||
8626. निर्वर्तनाका अर्थ निष्पादना अर्थात् रचना है । निक्षेपका अर्थ स्थापना अर्थात् रखना है। संयोगका अर्थ मिश्रित करना अर्थात् मिलाना है और निसर्गका अर्थ प्रवर्तन है । ये 1. त्र्यादिभेदान् आ., दि. 1, दि. 21 2. ऐते पिण्डि - मु. | 3. जीवस्याधि-- मु.
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