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246] सर्वार्थसिद्धी
[6148 -616 विशेष इत्यत्रोच्यते
सकषायाकषाययोः सांपरायिकर्यापथयोः ॥4॥ 8616. स्वामिभेदादास्रवभेदः । स्वामिनी द्वौ सकषायोऽकषायश्चेति । कषायः क्रोधादिः। कषाय इव कषायः । कः उपमार्थः । यथा कवायो नयग्रोधादिः श्लेषहेतुस्तथा क्रोधादिरप्यात्मनः कर्मश्लेषहेतुत्वात् कषाय इव कषाय इत्युच्यते । सह कषायेण वर्तत इति सकषायः। न विद्यते कषायो यस्येत्यकषायः। सकषायश्चाकषायश्च सकषायाकषायो तयोः सकषायाकषाययो। संपरायः संसारः तत्प्रयोजनं कर्म सांपराधिकम् । ईरणमीर्या योगो गतिरित्यर्थः । तदारकं कर्म ईर्यापथम् । सांपरायिकं च ईर्यापथं च सांपरायिकर्यापथे। तयोः सांपरायिकर्यापथयोः । यथासंख्यमभिसंबन्धः सकषायस्यात्मनो मिथ्यादृष्टयादेः सांपरायिकस्य कर्मण आस्रवो भवति । अकषायस्य उपशान्तकषायादेरीर्यापथस्य कर्मण आस्रवो भवति ।
$ 617. आदावुद्दिष्टस्यास्रवस्य भेदप्रतिपादनार्थमाहइन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य मेदाः॥5॥
8618. अत्र इन्द्रियादीनां पंचादिभिर्यथासंख्यमभिसंबन्धो वेदितव्यः । इन्द्रियाणि पंच । विशेषता है? अब इसी बात बतलानेके लिए आगेका सत्र कहते हैं
कषायसहित और कषायरहित आत्माका योग क्रमसे साम्परायिक और ईर्यापथ कर्मके आस्रवरूप है ॥4॥
8616. स्वामीके भेदसे आस्रवमें भेद है। स्वामी दो प्रकारके हैं-कषायसहित और कषायरहित । क्रोधादिक कषाय कहलाते हैं । कषायके समान होनेसे कषाय कहलाता है। उपमारूप अर्थ क्या है ? जिस प्रकार नैयग्रोध आदि कषाय श्लेषका कारण है उसी प्रकार आत्माका क्रोधादि रूप कषाय भी कर्मों के श्लेषका कारण है इसलिए कषायके समान यह कषाय है ऐसा कहते हैं। जिसके कषाय है वह सकषाय जीव है और जिसके कषाय नहीं है वह अकषाय जीव है। यहाँ इन दोनों पदोंका पहले 'सकषायश्च अकषायश्चेति सकषायाकषायौ' इस प्रकार द्वन्द्व समास करके अनन्तर स्वामित्व दिखलानेके लिए षष्ठीका द्विवचन दिया है। सम्पराय संसारका पर्यायवाची है । जो कर्म संसारका प्रयोजक है वह साम्परायिक कर्म है। ईर्याकी व्युत्पत्ति 'ईरणं' होगी। योगका अर्थ गति है। जो कर्म इसके द्वारा प्राप्त होता है वह ईर्यापथ कर्म है। यहाँ इन दोनों पदोंका पहले ‘साम्परायिकं च ईर्यापथं च साम्परायिकेर्यापथे' इस प्रकार द्वन्द्व समास करके तदनन्तर सम्बन्ध दिखलानेके लिए षष्ठीका द्विवचन दिया है। सकषायके साथ साम्परायिक शब्दका और अकषायके साथ ईर्यापथ शब्दका यथाक्रम सम्बन्ध है । जिससे यह अर्थ हुआ कि मिथ्यादृष्टि आदि कषायसहित जीवके साम्परायिक कर्मका आस्रव होता है । तथा उपशान्त कषाय आदि कषाय रहित जीवके ईर्यापथ कर्मका आस्रव होता है।
8617. आदिमें कहे गये आस्रवके भेद दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पूर्वके अर्थात् साम्परायिक कर्मास्रवके इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रियारूप भेव हैं जो क्रमसे पाँच, चार, पाँच और पच्चीस हैं ॥5॥
8618. यहाँ इन्द्रिय आदिका पाँच आदिके साथ क्रमसे सम्बन्ध जानना चाहिए । यथा 1. –दृष्टः साम्प- मु.।
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