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-613 § 615
किलक्षण आत्रव इत्युच्यते । योऽयं योगशब्दाभिधेयः संसारिणः पुरुषस्य -
स आस्रवः ॥2॥
षष्ठोऽध्यायः
8612. यथा सरस्सलिलावाहिद्वारं तदास्रवकारणत्वाद् आस्त्रव इत्याख्यायते तथा योगप्रणालिकया आत्मनः कर्म आस्रवतीति योग आस्रव इति व्यपदेशमर्हति ।
613. आह कर्मद्विविधं पुण्यं पापं चेति । तस्य किमविशेषेण योग आस्रवहेतुराहोस्विदस्तिकश्चित्प्रतिविशेष इत्यत्रोच्यते
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शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ||3||
$ 614. कः शुभो योगः को वा अशुभः । प्राणातिपातादत्तादानमैथुनादिरशुभः काययोगः । अनृतभाषणपरुषासभ्यवचनादिरशुभो वाग्योगः । वधचिन्तनेर्ष्यासूयादिरशुभो मनोयोगः । ततो विपरीतः शुभः । कथं योगस्य शुभाशुभत्वम् । शुभपरिणामनिर्वृ त्तो योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्वृतश्चाशुभः । न पुनः शुभाशुभकर्मकारणत्वेन । यद्येवमुच्यते शुभयोग एव न स्यात्, शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबन्धहेतुत्वाभ्युपगमात् । पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम् । तत्सद्वेद्यादि । पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम् । तदसद्वेद्यादि ।
$ 615. आह किमयमात्रवः सर्वसंसारिणां समानफलारम्भ हेतुराहोस्वित्कश्चिदस्ति प्रति
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कि आस्रवका क्या लक्षण है ? संसारी जीवके जो यह योग शब्दका वाच्य कहा हैवही आस्रव है ॥2॥
8612. जिस प्रकार तालाब में जल लानेका दरवाजा जलके आनेका कारण होनेसे आस्रव कहलाता है उसी प्रकार आत्माके साथ बंधनेके लिए कर्म योगरूपी नालीके द्वारा आते हैं, इसलिए योग आस्रव संज्ञाको प्राप्त होता है ।
8613. कर्म दो प्रकारका है- पुण्य और पाप, इसलिए क्या योग सामान्यरूपसे उसके आस्रवका कारण है या कोई विशेषता है ? इसी बात के बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
शुभयोग पुण्यका और अशुभयोग पापका आस्रव है ||3||
8614. शंका-शुभ योग क्या है और अशुभ योग क्या है ? समाधान - हिंसा, चोरी, और मैथुन आदिक अशुभ काययोग है । असत्य वचन, कठोर वचन और असभ्य वचन आदि अशुभ वचनयोग हैं । मारनेका विचार, ईर्ष्या और डाह आदि अशुभ मनोयोग है। तथा इनसे. विपरीत शुभकाय योग, शुभ वचनयोग और शुभ मनोयोग है । शंका- योगके शुभ और अशुभ ये भेद किस कारण से हैं ? समाधान - जो योग शुभ परिणामोंके निमित्तसे होता है वह शुभ योग है और जो योग अशुभ परिणामोंके निमित्तसे होता है वह अशुभ योग है । शायद कोई यह माने कि शुभ और अशुभ कर्मका कारण होनेसे शुभ और अशुभ योग होता है सो बात नहीं है; क्योंकि यदि इस प्रकार इनका लक्षण कहा जाता है तो शुभयोग ही नहीं हो सकता, क्योंकि शुभयोगको भी ज्ञानावरणादि कर्मोंके बन्धका कारण माना है । इसलिए शुभ और अशुभ योगका जो लक्षण यहाँ पर किया है वही सही है । जो आत्माको पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होता है वह पुण्य है, जैसे सातावेदनीय आदि । तथा जो आत्माको शुभसे बचाता है वह पाप है; जैसे असातावेदनीय आदि ।
8615. क्या यह आस्रव सब संसारी जीवोंके समान फलको पैदा करता है या कोई 1. आस्रवणहेतु- मु., ता., ना. । 2. पापम् । असद्वे - मु. 3. संसारिसमा आ., ता., ना. संसारसमादि. 2 ।
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