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अथ षष्ठोध्यायः 8609. आह, अजीवपदार्थो व्याख्यातः । इदानीं तदनन्तरोद्देशभागास्रवपदार्थो व्याख्येय इति ततस्तत्प्रसिद्धयर्थमिदमुच्यते
कायवाल मनाकर्म योगः ॥ 8610, कायादयः शब्दा व्याख्याताः । कर्म क्रिया इत्यनान्तरम् । कायवाङ्मनसां कर्म कायवाङ्मनःकर्म योग इत्याल्यायते। आत्मप्रवेशपरिस्पन्दो योगः। स निमित्तभेदात्रिधा भिद्यते । काययोगो वाम्योगो मनोयोग इति । तद्यथा-वीर्यान्तरायक्षयोपशमसद्भावे सति
औदारिकाविसप्तविधकायवर्गणान्यतमालम्बनापेक्ष आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः काययोगः। शरीरनामकर्मोक्यापावितवारवर्गणालम्बने सति वीर्यान्तरायमत्यक्षराचावरणक्षयोपशमापादिताम्यन्तर
लब्धिसांनिध्ये वाक्परिणामाभिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो वाग्योगः। अभ्यन्तरवीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमात्मकमनोलम्धिसंनिषाने बाह्यनिमित्तमनोवर्गणालम्बने च सति मनःपरिमामाभिमुखस्यात्मप्रदेशपरिस्पन्दो मनोयोगः । भयेऽपि त्रिविषवर्गणापेक्षः सयोगकेवलिन मात्मप्रवेशपरिस्पन्दो योगो वेवितव्यः।
8611. आह, अभ्युपेमः आहितविध्यक्रियो याग इति। प्रकृत इदाना निदिश्यतां
8609. जीव और अजीवका व्याख्यान किया। अब उसके बाद आस्रव पदार्थका व्याख्यान क्रम प्राप्त है । अतः उसे स्पष्ट करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
काय, वचन और मनकी क्रिया योग है ॥1॥
8610. काय आदि शब्दोंका व्याख्यान पहले कर आये हैं । कर्म और क्रिया ये एकार्थवाचो नाम हैं । काय, वचन और मनकी क्रियाको योग कहते हैं यह इसका तात्पर्य है । आत्माके प्रदेशोंका परिस्पन्द–हलन चलन योग है । वह निमित्तोंके भेदसे तीन प्रकारका है-काययोग, वचनयोग और मनोयोग । खुलासा इस प्रकार है-वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमके होनेपर औदारिक आदि सात प्रकारकी कायवर्गणाओंमें-से किसी एक प्रकारकी वर्गणाओंके आलम्बनसे होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पन्द काययोग कहलाता है। शरीर नामकर्मके उदयसे प्राप्त हई वचन-वर्गणाओंका आलम्बन होनेपर तथा वीर्यान्तराय और मत्यक्षरादि आवरणके क्षयोपशमसे प्राप्त हई भीतरी वचनलब्धिके मिलनेपर वचनरूप पर्यायके सन्मुख हुए आत्माके होनेवाला प्रदेश-परिस्पन्द वचनयोग कहलाता है। वीर्यान्तराय और नो-इन्द्रियावरणके क्षयोपशमरूप आन्तरिक मनोलब्धिके होनेपर तथा बाहरी निमित्तभूत मनोवर्गणाओंका आलम्बन मिलनेपर मनरूप पर्यायके सन्मुख हुए आत्माके होनेवाला प्रदेश-परिस्पन्द मनोयोग कहलाता है । वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्मके क्षय हो जानेपर भी सयोगकेवलीके जो तीन प्रकारकी वर्गणाओंकी अपेक्षा आत्मप्रदेश-परिस्पन्द होता है वह भी योग है ऐसा जानना चाहिए।
8611. हम तो स्वीकार करते हैं कि तीन प्रकारकी क्रिया योग है । अब यह बतलाइए 1. अथाजीवप- म.। आह जीवाजीवप- ता., ना.। इत्यजीवप- दि. 2। 2. आत्मन: प्रदे- आ. दि. 1. दि. 2। 3. अभ्युपगत आदि- मु.।
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