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236] सर्वार्थसिदौ
[5137 $ 598 कत्वात्सर्व विविक्तरूपेणवावतिष्ठेत । उक्तेन विधिना बन्धे पुनः सति ज्ञानावरणादीनां कर्मणां त्रित्सागरोपमकोटीकोटचादिस्थितिरुपपन्न भवति । रहेगा। परन्तु उक्त विधिसे बन्धके होनेपर ज्ञानावरणादि कर्मोंकी तीस कोडाकोडी सागरोपम आदि स्थिति बन जाती है।
'विशेषार्थ-यहाँ एक परमाणु आदिका अन्य परमाणु आदिके साथ बन्ध कैसे होता है इसका विचार किया गया है । रूक्ष और स्निग्ध ये विरोधी गुण हैं। जिसमें स्निग्ध गुण होता है उसमें रूक्षगुण नहीं होता और जिसमें रूक्ष गुण होता है उसमें स्निग्ध गुण नहीं होता। ये गुण ही बन्धके कारण होते हैं । किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि रूक्ष और स्निग्ध गुणका सद्भावमात्र बन्धका कारण है, क्योंकि ऐसा माननेपर एक भी पुद्गल परमाणु बन्ध के विना नहीं रह सकता, इसलिए यहाँपर विधिनिषेध-द्वारा बतलाया गया है कि किन पुदगल परमाणुओं आदिका परस्परमें बन्ध होता है और किनका नहीं होता है। जो स्निग्ध और रूक्ष गुण जघन्य शक्त्यंश लिये हुए होते हैं उन पुद्गल-पाणुओंका वन्ध नहीं होता। इसी प्रकार गुणकी समानताके होनेपर सदशोंका भी बंध नहीं होता किन्तु द्वयधिक गुणवाले पुद्गलपरमाणु आदिका ही द्वियहीन गुणवाले पुद्गलपरमाणुआदि के साथ वध होता है । ऐसा बन्ध स्निग्ध गुणवालेका स्निग्ध गुणवालेके सांथ, रूक्ष गुणवालेका रूक्ष गुणवाले के साथ और स्निग्ध गुणवालेका रूक्ष गुण वालेके साथ होता है यह नियम है । इसके अनुसार यह व्यवस्था फलित होती है
क्रमांक
गुणांश
सदृशबन्ध
| विसदृशवन्ध
नहीं
नहीं
जघन्य+जघन्य जघन्य एकादि अधिक जघन्येतर+समजघन्येतर जघन्येतर+एकाधिक जघन्येतर ।
जघन्येतर+द्वयधिक जघन्येतर 6 । जघन्येतर+त्र्यादिअधिकजघन्येतर
नहीं नहीं नहीं नहीं
नहीं
नहीं
तत्त्वार्थसूत्रमें निर्दिष्ट यह बन्ध-व्यवस्था प्रवचनसारका अनुसरण करती है । प्रवचनसार में भी इसी प्रकारसे बन्ध व्यवस्थाका निर्देश किया गया है, किन्तु षट्खण्डागमके वर्गणाखण्डमें कही गयी बन्ध व्यवस्था इससे कुछ भिन्न है जिसका ठीक तरहसे परिज्ञान होनेके लिए आगे कोष्ठक दिया जाता है
क्रमांक
गुणांश
सदृशबन्ध
विसदृशबन्ध
नहीं
जघन्य+जघन्य जघन्य+एकादिअधिक जघन्येतर+समजघन्येतर जघन्येतर+एकाधिक जघन्येतर |
जघन्येतर+यधिक जघन्येतर 6 | जघन्येतर+यादि अधिकजघन्येतर
नहीं नहीं नहीं नहीं
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