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2401 सर्वार्थसिद्धी
[5139 8602त्वमस्य स्यात् । तस्मात्पृथगिह कालोद्देशः क्रियते । अनेकद्रव्यत्वे सति किमस्य प्रमाणम् । लोकाकाशस्य यावन्तः प्रदेशास्तावन्तः कालाणवो निष्क्रियाः। एककाकाशप्रदेशे एककवृत्त्या लोकं व्याप्य व्यवस्थिताः। उक्तं च--
"लोगागासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया हु एक्कक्का।
रयणाण रासीविव ते कालाणू मुणेयव्वा ॥" रूपादिगुणविरहादमूर्ताः। अनुसार यदि कालको आकाशके पहले रखते हैं तो उसे एक द्रव्यत्व प्राप्त होता है। ये सब दोष न रहें, इसलिए कालका अलगसे कथन किया है। शंका--काल अनेक द्रव्य हैं इसमें क्या प्रमाण है ? समाधान-लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं उतने कालाणु हैं और वे निष्क्रिय हैं। तात्पर्य यह है कि लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर एक-एक कालाणु अवस्थित है। कहा भी है'लोकाकाशके एक-एक प्रदेश पर जो रत्नोंकी राशिके समान अवस्थित हैं उन्हें कालाणु जानो।' ये कालाणु रूपादि गुणोंसे रहित होनेके कारण अमूर्त हैं।
विशेषार्थ---पहले पाँच द्रव्योंके अस्तित्वकी चर्चा कर आये हैं । यहाँ छठा द्रव्य काल है इसका विचार किया जा रहा है। काल द्रव्य है या नहीं इस विषयमें श्वेताम्बर परम्परामें दो मत मिलते हैं। एक मत तो कालको द्रव्यरूपसे स्वीकार करता है और दूसरा मत कालको स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता । इस दूसरे मतके अनुसार सूर्यादिके निमित्तसे जो दिन-रात, घड़ीघण्टा, पल-विपल आदि रूप काल अनुभवमें आता है वह सब पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है। किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि इन जीव पुद्गल आदि द्रव्योंका परिणमन किसके निमित्तसे होता है ? यदि कहा जाय कि उत्पन्न होना, व्यय होना और ध्रुव रहना यह प्रत्येक द्रव्यका स्वभाव है। इसके लिए अन्य निमित्तके माननेकी क्या आवश्यकता ? तो इस प्रश्नपर यह तर्क होता है कि यदि इस तरह सर्वथा स्वभावसे ही प्रत्येक द्रव्यका परिणमन माना जाता है तो गति. स्थिति और अवगाहको भी सर्वथा स्वभावसे मान लेने में क्या आपत्ति है। और ऐसी हालतमें केवल जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य ही अवशिष्ट रहते हैं, शेष द्रव्योंका अभाव प्राप्त होता है, इतना ही क्यों, जीव और पुद्गलका तथा पुद्गल और पुद्गलका बन्ध भी सर्वथा स्वाभाविक मानना पड़ता है। निमित्त-नैमित्तिक भावके माननेकी कोई आवश्यकता ही नहीं रहती और ऐसी अवस्थामें मुक्त जीव भी स्वभावसे बँधने लगेगा तथा संसारी जीव भी बिना प्रयत्नके कभी भी मुक्त हो जायगा। यदि कहा जाय कि गति, स्थिति आदि कार्य हैं और जितने भी कार्य होते हैं वे निमित्त और उपादान इन दो के मिलने पर ही होते हैं, इसलिए गति, स्थिति और अवगाहनरूप कार्योंके निमित्तरूपसे धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यका अस्तित्व स्वीकार किया जाता है तो प्रत्येक द्रव्यके परिणमनरूपसे काल द्रव्यके अस्तित्वके स्वीकार करने में क्या हानि है अर्थात् कुछ भी नहीं। इस प्रकार विचार करनेपर काल द्रव्यका अस्तित्व सिद्ध होता है।
फिर भी यह काल द्रव्य जीव आदि अन्य द्रव्योंके समान न तो असंख्यातप्रदेशी है और न अनन्तप्रदेशी है किन्तु लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं उतने काल द्रव्य हैं और प्रत्येक कालद्रव्य लोकाकाशके एक-एक प्रदेश पर अवस्थित है । खुलासा इस प्रकार है- .
चप दो प्रकारका है—तिर्यक्प्रचय और ऊर्ध्वप्रचय । प्रदेशोंके प्रचयको तिर्यक्प्रचय कहते हैं और नानिमित्तक पर्यायप्रचयको ऊर्ध्वप्रचय कहते हैं । आकाश अवस्थित अनन्तप्रदेशवाला होनेरो, ध और अधर्म अवस्थित असंख्यात प्रदेशवाला होनेसे, जीव असंख्यात प्रदेशवाला होनेसे
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