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-5139 6 602] पंचमोऽध्यायः
[239 8602. किम् ? 'द्रव्यम्' इति वाक्यशेषः । कतः ? तल्लक्षणोपेतत्वात् । द्विविधं लक्षणमुक्तम्--'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इति च । तदुभयं लक्षणं कालस्य विद्यते । तद्यथा-ध्रौव्यं तावत्कालस्य स्वप्रत्ययं स्वभावव्यवस्थानात् । व्ययोदयौ परप्रत्ययौ, अगुरुलघुगुणवृद्धिहान्यपेक्षया स्वप्रत्ययौ च । तथा गुणा अपि कालस्य साधारणासाधारणरूपाः सन्ति । तत्रासाधारणो वर्तनाहेतुत्वम्, साधारणाश्चाचेतनत्वामूर्तत्वसूक्ष्मत्वागुरुलगुत्वादयः । पर्याथाश्च व्ययोत्पादलक्षणा योज्याः । तस्माद् द्विप्रकारलक्षणोपेतत्वादाकाशादिवत्कालस्य द्रव्यत्वं सिद्धम् । तस्यास्तित्वलिंग धर्मादिवद् व्याख्यातम् 'वर्तनालक्षणः कालः' इति । ननु किमर्थमयं कालः पृथगुच्यते । यत्रैव धर्मादय उक्तास्तत्रैवायमपि वक्तव्यः 'अजीयकाया धर्माधर्माकाशकालपुद्गलाः' इति । नवं शङ्क्यम् । तत्रोद्देशे सति कायत्वमस्य स्यात् । नेष्यते च मुख्योपचारप्रदेशप्रचयकल्पनाभावात् । धर्मादीनां तावन्मुख्यप्रदेशप्रय उक्तः 'असंख्येयाः प्रदेशाः' इत्येवमादिना । अणोरप्येकप्रदेशस्य पूर्वोत्तरभाव प्रज्ञापननयापेक्षयोपचारकल्पनया प्रदेशप्रचय उक्तः । कालस्य
नर्देधापि प्रदेशप्रचयकल्पना नास्तीत्यकायत्वम । अपि च तत्र पाठे निष्क्रियाणि च इत्यत्र धर्मादीनामाकाशान्तानां निष्क्रियत्वे प्रतिपादिते इतरेषां जीवपुद्गलानां सक्रियत्वप्राप्तिवत्कालस्यापि सक्रियत्वं स्यात । अथाकाशात्प्राक्काल उहिश्येत । तन्न; 'आ आकाशादेकद्रव्याणि' इत्येकद्रव्य
8602. शंका-क्या है ? समाधान-'द्रव्य है' इतना वाक्य शेष है। शंका-काल द्रव्य क्यों है ? समाधान-क्योंकि इसमें द्रव्यका लक्षण पाया जाता है। जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से यूक्त है वह सत् है तथा जो गुण और पयायवाला है वह द्रव्य है। इस प्रकार द्रव्यका दो प्रकारसे लक्षण कहा है। वे दोनों ही लक्षण कालमें पाये जाते हैं । खुलासा इस प्रकार है-कालमें ध्रुवता स्वनिमित्तक है, क्योंकि उससे अपने स्वभाव की व्यवस्था होती है । व्यय और उत्पाद परनिमित्तक हैं, और अगुरुलघु गुणोंकी हानि और वृद्धिकी अपेक्षा स्वनिमित्तक भी हैं। तथा कालके साधारण और असाधारण रूप दो प्रकारके गुण भी हैं। उनमें से असाधारण गुण वर्तनाहेतुत्व है और साधारण गुण अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व और अगुरुलघुत्व आदिक हैं। इसी प्रकार व्यय और उत्पादरूप पर्याय भी घटित कर लेना चाहिए। इसलिए कालमें जब द्रव्यके दोनों लक्षण पाये जाते हैं तो वह आकाशादिके समान स्वतन्त्र द्रव्य है यह सिद्ध होता है। धर्मादिक द्रव्यके समान इसके अस्तित्वके कारण का व्याख्यान किया ही है कि 'कालका लक्षण वर्तना है।' शंका-काल द्रव्यको अलगसे क्यों कहा? जहाँ धर्मादिक द्रव्योंका कथन किया है वहीं पर इसका कथन करना था, जिससे प्रथम सूत्रका रूप यही होता--'अजीवकाया धर्माधर्माकाशकालपुद्गलाः' समाधान—इस प्रकार शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ पर यदि इसका कथन करते तो इसे कायपना प्राप्त होता । परन्तु काल द्रव्य कायवान् नहीं कहा है, क्योंकि इसमें मुख्य और उपचार दोनों प्रकारसे प्रदेशप्रचयकी कल्पनाका अभाव है। धर्मादिक द्रव्योंका तो 'असंख्येयाः प्रदेशाः' इत्यादिक सूत्रों द्वारा मुख्यरूपसे प्रदेशप्रचय कहा है। उसी प्रकार एक प्रदेशवाले अणुका भी पूर्वोत्तरभाव प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा उपचारकल्पनासे प्रदेशप्रचय कहा है, परन्तु कालके दोनों प्रकारसे प्रदेशप्रचयकी कल्पना नहीं बनती, इसलिए वह अकाय है। दूसरे, यदि प्रथम सूत्र में कालका पाठ रखते हैं तो 'निष्क्रियाणि च' इस सूत्रमें धर्मसे लेकर आकाश तक के द्रव्योंको निष्क्रिय कहनेपर जैसे जीव और पुदगलोंको सक्रियत्व प्राप्त होता है वैसे ही काल द्रव्यको भी सक्रियत्व प्राप्त होता । शंका-इस.दोषको दूर करनेके लिए आकाशसे पहले कालको रख दिया जाय ? समाधान-यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि 'आकाश तक एक द्रव्य है' इस सूत्र वचनके 1. इति । किमर्थ- मु.। 2. -तरप्रशा- मु.। 3. -पुद्गलादीनां मु.। 4. -श्यते । आ आका- आ., दि. 1
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