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230] सर्वार्थसिद्धौ
[51318585प्रौव्ययुक्तं सत् उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकमिति यावत् । एतदुक्तं भवति–उत्पादादीनि द्रव्यस्य लक्षणानि । द्रव्यं लक्ष्यम् । तत्र पर्यायाथिकनयापेक्षया परस्परतो द्रव्याच्चान्तरभावः । द्रव्याथिकनयापेक्षया व्यतिरेकेणानुपलब्धेरनर्थान्तरभावः । इति लक्ष्यलक्षणभावसिद्धिः। 8585. आह 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' इत्युक्तं तत्र न ज्ञायते किं नित्यमित्यत आह
तभावाव्ययं नित्यम् ॥31॥ 8586. 'तद्भावः' इत्युच्यते । कस्तभावः ? प्रत्यभिज्ञानहेतुता । तदेवेदमिति स्मरणं
का तात्पर्य यह है कि उत्पाद आदि द्रव्यके लक्षण हैं और द्रव्य लक्ष्य है। यदि इनका पर्यायाथिक नयकी अपेक्षा विचार करते हैं तो ये आपसमें और द्रव्यसे पृथक् पृथक् हैं और यदि द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा विचार करते हैं तो ये पथक पृथक् उपलब्ध नहीं होनेसे अभिन्न हैं। इस प्रकार इनमें और द्रव्यमें लक्ष्य-लक्षणभावकी सिद्धि होती है।
विशेषार्थ-यहाँ द्रव्यका लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव बतलाया है। उभय निमित्तवश अपनी जातिका त्याग किये बिना नवीन पर्यायकी प्राप्ति उत्पाद है, पूर्व पर्यायका त्याग व्यय है, और अनादि पारिणामिक स्वभावरूप अन्वयका बना रहना ध्रौव्य है। उदाहरणार्थ-- कोयला जलकर राख हो जाता है, इसमें पुद्गलकी कोयलारूप पर्यायका व्यय हुआ है और क्षार रूप पर्यायका उत्पाद हुआ है, किन्तु दोनों अवस्थाओंमें पुद्गल द्रव्यका अस्तित्व बना रहता है। पुदगलपनेका कभी भी नाश नहीं होता यही उसकी ध्रवता है। आशय यह है कि प्रत्येक पदार्थ परिवर्तनशील है और उसमें यह परिवर्तन प्रति समय होता रहता है । जैसे दूध कुछ समय बाद दही रूपसे परिणम जाता है और फिर दहीका मट्ठा बना लिया जाता है, यहाँ यद्यपि दूधसे दही और दहीसे मट्ठा ये तीन भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ हुई हैं पर हैं ये तीनों एक गोरसकी ही । इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्यमें अवस्था भेदके होनेपर भी उसका अन्वय पाया जाता है, इसलिए वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त सिद्ध होता है। यह प्रत्येक द्रव्यका सामान्य स्वभाव है। अब प्रश्न यह होता है कि प्रत्येक द्रव्य एक साथ तीनरूप कैसे हो सकता है। कदाचित् कालभेदसे उसे उत्पाद और व्ययरूप मान भी लिया जाय, क्योंकि जिसका उत्पाद होता है उसका कालान्तर में नाश अवश्य होता है । तथापि वह ऐसी अवस्थामें ध्रौव्यरूप नहीं हो सकता, क्योंकि जिसका उत्पाद और व्यय होता है उसे ध्राव्य स्वभाव मानने में विरोध आता है। समाधान यह है कि अवस्थाभेदसे द्रव्यमें ये तीनों धर्म माने गये हैं । जिस समय द्रव्यकी पूर्व अवस्था नाशको प्राप्त होती है उसी समय उसकी नयी अवस्था उत्पन्न होती है फिर भी उसका त्रैकालिक अन्वय स्वभाव बना रहता है। इसी बातको आचार्य समन्तभद्रने इन शब्दोंमें व्यक्त किया है-'घटका इच्छुक उसका नाश होने पर दुखी होता है, मुकुटका इच्छुक उसका उत्पाद होनेपर हर्षित होता है और स्वर्णका इच्छुक न दुखी होता है न हर्षित होता है, वह मध्यस्थ रहता है।' एक ही समयमें यह शोक, प्रमोद और मध्यस्थभाव बिना कारणके नहीं हो सकता, इससे प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुत है यह सिद्ध होता है।
8585. 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' यह सूत्र कह आये हैं । वहाँ यह नहीं ज्ञात होता कि नित्य क्या है, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
उसके भावसे (अपनी जातिसे) च्युत न होना नित्य है ॥3॥
6 586. अब तद्भाव इस पदका खुलासा करते हैं । शंका-'तद्भाव' क्या वस्तु है ? 1. -दादीनि त्रीणि द्रव्य --मु.। 2. लक्ष्यम् । तत्पर्या- मु., आ., दि. 1 ।
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