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पंचमोऽध्यायः
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$ 581. आह, धर्मादीनां द्रव्याणां विशेषलक्षणान्युक्तानि, सामान्यलक्षणं नोक्तम्, तद्वक्तव्यम् । उच्यते
सद् द्रव्यलक्षणम् ||291
8582. यत्सत्तद् द्रव्यमित्यर्थः ।
8583. यद्येवं तदेव तावद्वक्तव्यं किं सत् । इत्यत आह-
उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् ॥30॥
8584. चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत' उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद: मृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् । तथा पूर्वभावविगमनं व्ययः । यथा घटोत्पत्तौ पिण्डाकृतेः । अनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोक्याभावाद् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवः । ध्रुवस्य भावः कर्म वा धौव्यम् । यथा मृत्पिण्डघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयः । तैरुत्पादव्ययप्रौव्यैर्युक्तं उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति । आह, भेदे सति युक्तशब्दो दृष्टः । यथा दण्डेन युक्तो देवदत्त इति । तथा सति तेषां त्रयाणां तैर्युक्तस्य द्रव्यस्य चाभावः प्राप्नोति ? नैष दोषः; अभेदेऽपि कथंचिद् भेदनयापेक्षया युक्तशब्दो दृष्टः । यथा सारयुक्तः स्तम्भ इति । तथा सति तेषामविनाभावात्सद्व्यपदेशो युक्तः । समाधिवचनो वा युक्तशब्दः । युक्तः समाहितस्तदात्मक इत्यर्थः । उत्पादव्यय
$ 581. धर्मादिक द्रव्यके विशेष लक्षण कहे, सामान्य लक्षण नहीं कहा, जो कहना चाहिए इसलिए सूत्र द्वारा सामान्य लक्षण कहते हैं
द्रव्यका लक्षण सत् है ॥29॥
8 582. जो सत् है वह द्रव्य है यह इस सूत्रका भाव है ।
8583. यदि ऐसा है तो यही कहिए कि सत् क्या है ? इसलिए आगेका सूत्र कहते हैंजो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनोंसे युक्त अर्थात् इन तीनोंरूप है वह सत् है ॥30॥
।
8584. द्रव्य दो हैं-चेतन और अचेतन । वे अपनी जातिको तो कभी नहीं छोड़ते फिर भी उनकी अन्तरंग और बहिरंग निमित्तके वशसे प्रति समय जो नवीन अवस्थाकी प्राप्ति होती है उसे उत्पाद कहते हैं । जैसे मिट्टी के पिण्डकी घट पर्याय । तथा पूर्व अवस्थाके त्यागको व्यय कहते हैं । जैसे घटकी उत्पत्ति होनेपर पिण्डरूप आकारका त्याग तथा जो अनादिकालीन पारिणामिक स्वभाव है उसका व्यय और उदय नहीं होता किन्तु वह 'ध्रुवति' अर्थात् स्थिर रहता है इसलिए उसे ध्रुव कहते हैं । तथा इस ध्रुवका भाव या कर्म ध्रौव्य कहलाता है । जैसे मिट्टी के पिण्ड और घटादि अवस्थाओंमें मिट्टीका अन्वय बना रहता है। इस प्रकार इन उत्पाद, व्यय और धौव्यसे जो युक्त है वह सत् | शंका - भेदके रहते हुए युक्त शब्द देखा जाता है । जैसे दण्डसे युक्त देवदत्त । यहाँ दण्ड और देवदत्तमें भेद है प्रकृतमें भी यदि ऐसा मान लिया जाय तो उन तीनोंका और उन तीनोंसे युक्त द्रव्यका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान —यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि अभेदमें भी कथंचित् भेदग्राही नयकी अपेक्षा युक्त शब्दका प्रयोग देखा जाता है । जैसे सार युक्त स्तम्भ । ऐसी हालतमें उन तीनोंका परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध होने से यहाँ युक्त शब्दका प्रयोग करना युक्त है । अथवा यह युक्त शब्द समाधिवाची है । भाव यह है कि युक्त, समाहित और तदात्मक ये तीनों एकार्थवाची शब्द हैं जिससे 'सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त है' इसका भाव 'सत् उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक है' यह होता है । उक्त कथन 1. -जहत निमित- आ., दि. 1, दि. 21 2. प्रोव्ययुक्तं सदिति
मु. . ।
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