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--5132 $588] पंचमोऽध्यायः
[231 प्रत्यभिज्ञानम् । तदकस्मान्न भवतीति योऽस्य हेतुः सतद्भावः। भवनं भावः । तस्य भावस्तद्भावः । येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते। यद्यत्यन्तनिरोधोऽभिनवप्रादुर्भावमात्रमेव वा स्यात्ततः स्मरणानुपपत्तिः। तदधीनो लोकसंव्यवहारो विरुध्यते । ततस्तदभावेनाव्ययं तद्भावाव्ययं नित्यमिति निश्चीयते। तत् तु कथंचिद्वेदितव्यम्। सर्वथा नित्यत्वे अन्यथाभावाभावात्संसारतद्विनिवृत्तिकारणप्रक्रियाविरोधः स्यात् ।।
8587. ननु इदमेव विरुद्धं तदेव नित्यं तदेवानित्यमिति । यदि नित्यं व्ययोदयाभावादनित्यताव्याघातः । अशानित्यमेव स्थित्यभावान्नित्यताव्याघात इति ? नैतद्विरुद्धम् । कुतः--
अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥32॥ 8588. अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीतमिति यावत् । तद्विपरीतमपितम् । प्रयोजनाभावात् सतोऽप्यविवक्षा भवतीत्युपसर्जनीभूतमर्पितमित्युच्यते । अर्पितं चार्पितं चापितानपिते । ताभ्यां सिद्धरपितानर्पितसिद्धेर्नास्ति विरोधः । तद्यथा--एकस्य देवदत्तस्य पिता पुत्रो भ्राता भागिनेय इत्येवमादयः समाधान--जो प्रत्यभिज्ञानका कारण है वह तद्भाव है, 'वही यह है' इस प्रकारके स्मरणको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । वह अकस्मात् तो होता नहीं, इसलिए जो इसका कारण है वही तद्भाव है। इसकी निरुक्ति 'भवनं भावः, तस्य भावः तदभावः' इस प्रकार होती है । तात्पर्य यह है कि पहले जिसरूप वस्तुको देखा है उसी रूप उसके पुनः होनेसे 'यह वही है' इस प्रकारका प्रत्यभि-. ज्ञान होता है। यदि पूर्व वस्तुका सर्वथा नाश हो जाय या सर्वथा नयी वस्तुका उत्पाद माना जाय तो इससे स्मरणकी उत्पत्ति नहीं हो सकती और स्मरणकी उत्पत्ति न हो सकनेसे स्मरणके आधीन जितना लोकसंव्यवहार चालू है वह सब विरोधको प्राप्त होता है, इसलिए जिस वस्तुका जो भाव है उस रूपसे च्युत न होना तद्भावाव्यय अर्थात् नित्य है ऐसा निश्चित होता है। परन्तु इसे कथंचित् जानना चाहिए। यदि सर्वथा नित्यता मान ली जाय तो परिणमनका सर्वथा
प्राप्त होता है और ऐसा होनेसे संसार और इसकी निवृत्तिके कारणरूप प्रक्रियाका विरोध प्राप्त होता है।
8587. शंका-उसीको नित्य कहना और उसीको अनित्य कहना यही विरुद्ध है। यदि नित्य है तो उसका व्यय और उत्पाद न होनेसे उसमें अनित्यता नहीं बनती। और यदि अनित्य है तो स्थितिका अभाव होनेसे नित्यताका व्याघात होता है ? समाधान-नित्यता और अनित्यताका एक साथ रहना विरुद्ध नहीं है, क्योंकि---
मुख्यता और गौणताको अपेक्षा एक वस्तुमें विरोधी मालूम पड़नेवाले दो धर्मोकी सिद्धि होती है ॥32॥
8588. वस्तु अनेकान्तात्मक है । प्रयोजनके अनुसार उसके किसी एक धर्मको विवक्षासे जब प्रधानता प्राप्त होती है तो वह अपित या उपनीत कहलाता है और प्रयोजनके अभावमें जिसकी प्रधानता नहीं रहती वह अनर्पित कहलाता है । तात्पर्य यह है कि किसी वस्तु या धर्मके रहते हए भी उसकी विवक्षा नहीं होती, इसलिए जो गौण हो जाता वह अनर्पित कहलाता है। इन दोनोंका 'अनपितं च अपितं च' इस प्रकार द्वन्द्व समास है। इन दोनोंकी अपेक्षा एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मोकी सिद्धि होती है, इसलिए कोई विरोध नहीं है। खुलासा इस 1. तदभावः । तस्य मु.। 2. -त्यन्तविरोधो मु.। 3. -नाव्ययं नित्य- मु.। 4. विवक्षाया- आ., दि. 1, दि. 2। 5. भ्राता माता भाग- मु.।
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