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226] सर्वार्थसिद्धौ
[51256 573कारणं प्रकाशविरोधि । छाया प्रकाशावरणनिमित्ता। सा द्वेधा-वर्णादिविकारपरिणता प्रतिबिम्बमात्रात्मिका चेति । आतप आदित्यादिनिमित्त उष्णप्रकाशलक्षणः । उद्योतश्चन्द्रमणिखद्योतादि-. प्रभवः प्रकाशः। त एते शब्दादयः पुद्गलद्रव्यविकाराः। त एषां सन्तीति शब्दबन्धसौक्षम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तः पुदगला इत्यभिसंबध्यते। 'च'शब्देन नोदनाभिघातादयः पुद्गलपरिणामा आगमे प्रसिद्धाः समुच्चीयन्ते । 6 573. उक्तानां पुद्गलानां भेदप्रदर्शनार्थमाह
अरावः स्कन्धाश्च ॥25॥ 8574. प्रदेशमात्रभाविस्पर्शादिपर्यायप्रसवसामर्थ्यनाण्यन्ते शब्द्यन्त इत्यणवः । सौम्यादात्मादय आत्ममध्या आत्मान्ताश्च ॥ उक्तं च----
"अत्तादि अत्तमझं अत्तंत व इंदिये गेज्झं ।
जं दव्वं अविभागी तं परमाणु विआणाहि ।।'' ___ स्थूलभावेन ग्रहणनिक्षेपणादिव्यापारस्कन्धनात्स्कन्धा इति संज्ञायन्ते । रूढौ क्रिया क्वचित्सती उपलक्षणत्वेनाश्रीयते इति ग्रहणादिव्यापारायोग्येष्वपि द्वयणुकादिषु स्कन्धाख्या प्रवर्तते । अनन्तभेदा अपि पुद्गला अणुजात्या स्कन्धजात्या च द्वैविध्यमापद्यमानाः सर्वे गृहयन्त इति
आदिसे पीटने पर जो फलंगे निकलते हैं वह अणचटन नामका भेद है। जिससे दष्टिमें प्रतिबन्ध होता है और जो प्रकाशका विरोधी है वह तम कहलाता है। प्रकाशको रोकनेवाले पदार्थोके निमित्तसे जो पैदा होती है वह छाया कहलाती है। उसके दो भेद हैं--एक तो वर्णादिके विकार रूपसे परिणत हई और दूसरी प्रतिबिम्बरूप । जो सर्यके निमित्तसे उष्ण प्रकाश होता है उसे आतप कहते हैं। तथा चन्द्रमणि और जुगुन आदिके निमित्तसे जो प्रकाश पैदा होता है उसे उद्योत कहते हैं । ये सब शब्दादिक पुद्गल द्रव्यके विकार (पर्याय) हैं । इसीलिए सूत्रमें पुद्गलको इन शब्द, बन्ध, सौम्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योतवाला कहा है । सूत्र में दिये हुए 'च' शब्द से नोदन अभिघात आदिक जो पुद्गलकी पर्याय आगममें प्रसिद्ध हैं उनका संग्रह करना चाहिए।
$ 573. अब पूर्वोक्त पुद्गलोंके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंपुद्गल के दो भेद हैं-अणु और स्कन्ध ॥25॥
8574. एक प्रदेशमें होनेवाले स्पर्शादि पर्यायको उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य रूपसे जो 'अण्यन्ते' अर्थात् कहे जाते हैं वे अणु कहलाते हैं । तात्पर्य यह है कि अणु एकप्रदेशी होनेसे सबसे
छोटा होता है इसलिए वह अणु कहलाता है। यह इतना सूक्ष्म होता है जिससे वही आदि है, । 'वही मध्य है और वही अन्त है। कहा भी है
'जिसका आदि, मध्य और अन्त एक है, और जिसे इन्द्रियाँ नहीं ग्रहण कर सकतीं ऐसा जो विभाग रहित द्रव्य है उसे परमाणु समझो।
जिनमें स्थूल रूपसे पकड़ना, रखना आदि व्यापारका स्कन्धन अर्थात् संघटना होती है वे स्कन्ध कहे जाते हैं । रूढिमें क्रिया कहीं पर होती हुई उपलक्षणरूपसे वह सर्वत्र ली जाती है, इसलिए ग्रहण आदि व्यापारके अयोग्य द्वयणुक आदिक में भी स्कन्ध संज्ञा प्रवृत्त होती है । पुद्गलोंके अनन्त भेद हैं तो भी वे सब अणुजाति और स्कन्धजातिके भेदसे दो प्रकारके हैं । 1. नि. सा., गा. 261
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