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224] सर्वार्थसिद्धी
[5124 6 571गन्ध्यते गन्धनमात्र वा गन्धः । स द्वेषा; सुरभिरसुरभि रिति । वय॑ते वर्णनमात्र वा वर्णः। स पञ्चविषः; कृष्णनीलपीतशुक्ललोहितभेदात् । त एते मूलभेदाः प्रत्येकं संख्येयासंख्येयानन्तभेदास्थ भवन्ति । स्पर्शश्च रसश्च गन्धश्च वर्णश्च स्पर्शरसगन्धवस्त एतेषां सन्तोति शरसगन्धवर्गबन्त इति । नित्ययोगे मतुनिर्देशः । यथा क्षीरिणो न्यग्रोधा इति । मनु बसपिणः पुद्गला इत्यत्र पुद्गलानां रूपवस्वमुक्तं तदविनाभाबिनश्च रसादयस्तत्रैव परिगृहोता इति व्याख्यातं तस्मात्तेनैक घुमलानां रूपादिभस्वसिद्धः सूत्रमिदमनर्थकमिति ? नेष रोषः; "मित्यायस्थितान्यरूपाणि' इत्यत्र धर्मादीनां नित्यत्वादिनिरूपणेन पुद्गलानामरूपित्वप्रसंगे तरपाकरणाचं तदुक्तम् । इदं तु तेगा स्वरूपविशेषप्रतिपत्यर्थमुच्यते।
8571. अवशिष्टपुद्गलविकारप्रतिपत्त्यर्वमिदमुच्यतेशब्दबन्धसौक्षम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमम्छासातपोद्योतवन्तश्च ॥24॥
8572. शब्दो द्विविधः भाषालक्षणो विपरीतश्चेति । भाषालक्षणो द्विविधः-साक्षरोऽनक्षरश्चेति । अक्षरीकृतः शास्त्राभिव्यञ्जकः संस्कृतविपरीतभेदादार्यम्लेच्छव्यवहारहेतुः । अनक्षरात्मको द्वीन्द्रियादीनातिशयज्ञानस्वरूपप्रतिपादनहेतुः । स एष सर्वः प्रायोगिकः । अभाषात्मको है या स्वादमात्रको रस कहते हैं। तीता, खट्टा, कड आ, मीठा और कसैलाके भेदसे वह पाँच प्रकारका है । जो सूंघा जाता है या सूंघनेमात्रको गन्ध कहते हैं । सुगन्ध और दुर्गन्धके भेदसे वह दो प्रकारका है। जिसका कोई वर्ण है या वर्णमात्रको वर्ण कहते हैं । काला, नीला, पीला, सफेद और लालके भेदसे वह पांच प्रकारका है। ये स्पर्श आदिके पल भेद हैं। वैसे प्रत्येकके संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं । इस प्रकार ये स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण जिनमें पाये जाते हैं वे स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले कहे जाते हैं। इनका पुद्गल द्रव्यसे सदा सम्बन्ध है यह बतलाने के लिए 'मतुप, प्रत्यय किया है। जैसे 'क्षीरिणो न्यग्रोधाः' । यहाँ न्यग्रोध वृक्षमें दूधका सदा सम्बन्ध बतलानेके लिए 'णिनी' प्रत्यय किया है--उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। शंका-'रूपिणः पुद्गलाः' इस सूत्रमें पुद्गलोंको रूपवाला बतला आये हैं । और रसादिक वहीं रहते हैं जहाँ रूप पाया जाता है; क्योंकि इनका परस्परमें सहचर नामका अविनाभाव सम्बन्ध है इसलिए रूपके ग्रहण करनेसे रसादिका ग्रहण हो ही जाता है यह भी पहले बतला आये हैं. इसलिए उसी सूत्रके बलसे पुद्गल रूपादिवाला सिद्ध हो जाता है अतः यह सूत्र निष्फल है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि नित्यावस्थितान्यरूपाणि' इस स्त्रमें धर्मादिक द्रव्योंका नित्य आदि रूपसे निरूपण किया है इससे पुद्गलोंको अरूपित्व प्राप्त हुआ, अत: इस दोष के दूर करनेके लिए 'रूपिणः पुद्गलाः' यह सूत्र कहा है । परन्तु यह सूत्र पुद्गलोंके स्वरूप विशेषका ज्ञान कराने के लिए कहा है।
8571. अब पुद्गलोंकी शेष रहीं पर्यायोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
तथा वे शब्द, बन्ध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, संस्थान, अन्धकार, छाया, आतप और उद्योतवाले होते हैं ॥24॥
8572. भाषारूप शब्द और अभाषारूप शब्द इस प्रकार शब्दोंके दो भेद हैं। भाषात्मक शब्द दो प्रकारके हैं---साक्षर और अनक्षर । जिसमें शास्त्र रचे जाते हैं और जिससे आर्य और म्लेच्छोंका व्यवहार चलता है ऐसे संस्कृत शब्द और इससे विपरीत शब्द ये सब साक्षर शब्द हैं। जिससे उनके सातिशय ज्ञानके स्वरूपका पता लगता है ऐसे दो इन्द्रिय आदि जीवोंके शब्द अनक्षरात्मक शब्द हैं । ये दोनों प्रकारके शब्द प्रायोगिक हैं । अभाषात्मक शब्द दो प्रकारके हैं1. सुरभिदुरभि- आ. दि. 1, दि. 2 । 2. -वन्निर्देशः मु. । मन्निर्देश: ना. ।
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