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222] सर्वार्थसिद्धौ
[51228568568. आह, यद्यवश्यं सतोपकारिगा भवितव्यम् ; संश्च कालोऽभिमतस्तस्य क उपकार इत्यत्रोच्यते
वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ॥22॥ 8569. वृत्तेणिजतन्तात्कर्मणि भावे वा युटि स्त्रीलिंगे वर्तनेति भवति । वर्त्यते' वर्तनमात्रं या वर्तना इति । धर्मादीनां द्रव्याणां स्वपर्यायनिर्वृत्ति प्रति स्वात्मनैव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाद्विना तद्वत्त्यभावात्तत्प्रवर्तनोपलक्षितः काल इति कृत्वा वर्तना कालस्योपकारः । को णिजर्थः ? वर्तते द्रव्यपर्यायस्तस्य वर्तयिता कालः । यद्येवं कालस्य क्रियावत्त्वं प्राप्नोति । यथा शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयतीति ? नैष दोषः; निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तृव्यपदेशो दृष्टः । यथा "कारीषोऽग्निरध्यापयति । एवं कालस्य हेतुकर्तृता । स कथं काल इत्यवसीयते ? समयादीनां क्रियाविशेषाणां समयादिभिनिर्वय॑मानानां च पाकादीनां समयः पाक इत्येवमादि स्वसंज्ञारूढिसद्भावेऽपि समयः कालः ओदनपाकः काल इति अध्यारोप्यमाणः कालव्यपदेशस्तव्यपदेशनिमित्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति । कुतः ? गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् । द्रव्यस्य पर्यायो धर्मान्तरनिवृत्तिधर्मान्तरोपजननरूपः अपरिस्पन्दात्मकः परिणामः । जीवस्य क्रोधादिः, पुद्गलस्य वर्णादिः । धर्माधर्माकाशानामगुरुलघु
8568. यदि ऐसा है कि जो है उसे अवश्य उपकारी होना चाहिए तो काल भी सद्रूप माना गया है इसलिए उसका क्या उपकार है, इसी बातके बतलानेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं।
वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये कालके उपकार हैं ॥22॥
8569. णिजन्त वृत्ति धातुसे कर्म या भावमें 'युट्' प्रत्ययके करनेपर स्त्रीलिंगमें वर्तना शब्द बनता है जिसकी व्युत्पत्ति वर्त्यते या वर्तनमात्रम् होती है। यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्यायके उत्पन्न करने में स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी उनकी वृत्ति बाह्य सहकारी कारणके बिना नहीं हो सकती, इसलिए उसे प्रवर्तानेवाला काल है ऐसा मान कर वर्तना कालका उपकार कहा है। शंका-णिजर्थ क्या है ? समाधानद्रव्यकी पर्याय बदलती है और उसे बदलानेवाला काल है। शंका-यदि ऐसा है तो काल क्रियावान द्रव्य प्राप्त होता है? जैसे शिष्य पढता है और उपाध्याय पढ़ाता है। (यहाँ उपाध्याय क्रियावान द्रव्य है।) समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि निमित्त मात्रमें भी हेतुकर्ता रूप व्यपदेश देखा जाता है। जैसे कंडेकी अग्नि पढ़ाती है। यहाँ कंडेकी अग्नि निमित्तमात्र है उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है। शंका-वह काल
कैसे जाना जाता है ! समाधान-समयादिक क्रियाविशषोका और समयादिकके द्वारा होने वाले पाक आदिककी समय, पाक इत्यादि रूपसे अपनी अपनी रौढ़िक संज्ञाके रहते हुए भी उसमें जो समय काल, ओदनपाक काल इत्यादि रूपसे काल संज्ञाका अध्यारोप होता है वह उस संज्ञाके निमित्तभत मुख्यकालके अस्तित्वका ज्ञान कराता है, क्योंकि गौण व्यवहार मुख्यकी अपेक्षा रखता है । एक धर्मकी निवृत्ति करके दूसरे धर्मके पैदा करने रूप और परिस्पन्दसे रहित द्रव्यकी जो पर्याय है उसे परिणाम कहते हैं । यथा जीवके क्रोधादि और पुद्गलके वर्णादि । इसी प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यमें परिणाम होता है जो अगुरुलघु गुणों (अविभाग1. -य॑ते वर्तते वर्तन- मु. 2. कारीषाग्नि- आ.। 3. 'हेतुनिर्देशश्च निमित्तमात्रे. भिक्षादिषु दर्शनात् । हेतुनिर्देशश्च निमित्तमात्रे द्रष्टव्यः । यावद् ब्रूयानिमित्त कारणमिति तावद्धेतुरिति । कि प्रयोजनम् ? भिक्षादिषु दर्शनात् । भिक्षादिष्वपि णिज्दश्यते भिक्षा वासयन्ति कारीषोऽग्निरध्यापयति इति ।- पा. म. भा. 3, 1, 2, 261 4.-दिष्वसंज्ञा- मु.। 5. पाककाल: मु.।
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