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पंचमोऽध्यायः उपकाराधिकारे पुनः 'उपग्रह' वचनं किमर्थम् ? पूर्वोक्तसुखाविचतुष्टयप्रदर्शनार्थ पुनः 'उपग्रह वचन क्रियते । सुखादीन्यपि जीवानां जीवकृत उपकार इति । सूत्रमें जो सुखादिक चार कह आये है उनके दिखलानेके लिए फिरसे 'उपग्रह' शब्द दिया है । तात्पर्य यह है कि सुखादिक भी जीवोंके जीवकृत उपकार हैं।
विशेषार्थ-यहाँ उपकार के प्रकरणमें कौन द्रव्य अन्यका क्या उपकार करता है इस बातका निर्देश किया गया है, इसलिए विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या अन्य द्रव्य अपने भिन्न दूसरे द्रव्यका भला-बुरा कुछ कर सकता है। यदि कर सकता है तो यह मान लिया जाय कि जैन-. दर्शनमें ईश्वरवादका निषेध क्यों किया गया है ? यह तो मानी हुई बात है कि एक द्रव्यके जो गुण और पर्याय होते हैं वे उसे छोड़कर अन्य द्रव्यमें प्रविष्ट नहीं होते। इसलिए एक द्रव्य अपने से भिन्न दूसरेका उपकार करता है यह विचारणीय हो जाता है। जिन दर्शनोंने ईश्वरवादको स्वीकार किया है वे प्रत्येक कार्य के प्रेरक रूपसे ईश्वरको निमित्त कारण मामते हैं । उनका कहना है कि यह प्राणी अज्ञ है, अपने सुख-दुःखका स्वामी नहीं है। ईश्वरकी प्रेरणावश स्वर्ग जाता है या नरक । इसमें स्वर्ग और नरक आदि गतियोंकी प्राप्ति जीवको होती है यह बात स्वीकार की गयी है, तथापि उनकी प्राप्तिमें ईश्वरका पूरा हाथ रहता है। अगर ईश्वर चाहे तो जीवको इन गतियों में आनेसे बचा भी सकता है। इसी अभिप्रायसे एक द्रव्यको अन्य द्रव्यक उपकारक माना है तब तो ईश्वर वादका निषेध करना न करनेके बराबर होता है और यदि इस उपकार प्रकरणका कोई भिन्न अभिप्राय है तो उनका दार्शनिक विश्लेषण होना अत्यावश्यक है। आगे संक्षेपमें इसी बातपर प्रकाश डाला जाता है
लोकमें जितने द्रव्य हैं वे सब अपने-अपने गुण और पर्यायोंको लिये हुए हैं। द्रव्यदृष्टिसे वे अनन्त काल पहले जैसे थे आज भी वैसे ही हैं और आगे भी वैसे ही बने रहेंगे। किन्तु पर्यायदष्टिसे वे सदा परिवर्तनशील हैं। उनका यह परिवर्तन द्रव्यको मर्यादाके भीतर ही होता है। प्रत्येक द्रव्यका यह स्वभाव है। इसलिए प्रत्येक द्रव्यमें जो भी परिणाम होता है वह अपनीअपनी योग्यतानुसार ही होता है । संसारी जीव पुद्गल द्रव्यसे बँधा हुआ है यह भी अपनी योग्यताके कारण ही कालान्तरमें मुक्त होता है यह भी अपनी योग्यतानुसार ही। तथापि प्रत्येक द्रव्यके इस योग्यतानुसार कार्यके होने में बाह्य पदार्थ निमित्त माना जाता है। जैसे बालक में पढ़नेकी योग्यता है, इसलिए उसे अध्यापक व पुस्तक आदिका निमित्त मिलने पर वह पढ़कर विद्वान् बनता है, इसलिए ये अध्यापक आदि उसके निमित्त हैं । पर तत्त्वतः विचार करने पर ज्ञात होता है कि यहाँ कुछ अध्यापक या पुस्तक आदिने बालककी आत्मामें बद्धि नहीं उत्पन्न कर दी । यदि इन बाह्य पदार्थोमें बुद्धि उत्पन्न करनेकी योग्यता होती तो जितने बालक उस अध्यापकके पास पढ़ते हैं उन सबमें वह बुद्धि उत्पन्न कर सकता था। पर देखा जाता है कि कोई मुर्ख रहता है, कोई अल्पज्ञानी हो पाता है और कोई महाज्ञानी हो जाता है। एक ओर तो अध्यापकके बिना बालक पढ़ नहीं पाता और दूसरी ओर यदि बालकमें बुद्धिके प्रादुर्भाव होनेकी योग्यता नहीं है तो अध्यापकके लाख चेष्टा करने पर भी वह मूर्ख बना रहता है। इससे ज्ञात होता है कि कार्यकी उत्पत्तिमें अध्यापक निमित्त तो है परं वह परमार्थसे प्रेस्क नहीं। ईश्वरकी मान्यतामें प्रेरकतापर बल दिया गया है और यहाँ उपकार प्रकरणमें बाह्य निमित्तको तो स्वीकार किया गया है पर उसे परमार्थ से प्रेरक नहीं माना है। यहाँ उपकार प्रकरणके ग्रथित करनेका यही अभिप्राय है। 1. क्रियते । आह यद्यवश्यं ता., ना.।
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