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सपिसिटी
[5138531व्यतिप्रसङ्गः स्यात । आपो गन्धवत्यः; स्पर्शवत्त्वात्पथिवीवत् । तेजोऽपि रसगन्धवद ; रूपवत्त्वात तद्वदेव । मनोऽपि द्विविधं द्रव्यमनो भावमनश्चेति । तत्र भावमनो ज्ञानम् ; तस्य जीवगुणत्वादास्मन्यन्तर्भावः । द्रव्यमनश्च रूपादियोगात्पुद्गलद्रव्यविकारः । रूपादिवन्मनः, ज्ञानोपयोगकरणत्वा
चक्षुरिन्द्रियवत् । ननु अमूर्तेऽपि शब्दे ज्ञानोपयोग करणत्वदर्शनाद् व्यभिचारी हेतुरिति चेत् ?न; तस्य पौद्गलिकत्वान्मूर्तिमत्वोपपत्तेः । ननु यथा परमाणूनां रूपादिमत्कार्य दर्शनाद्रूपादिमत्त्वं न तथा वायुमनसो रूपादिसत्कार्य दृश्यते इति चेत् ? न; तेषामपि तदुपपत्तेः । सर्वेषां परमाणूनां सर्वरूपादिमत्कार्यत्वप्राप्तियोग्यत्वाभ्युपगमात् । न च केचित्पार्थिवादिजातिविशेषयुक्ताः परमाणवः सन्ति; जातिसंकरेणारम्भदर्शनात् । दिशोऽप्याकाशेऽन्तर्भावः, आदित्योदयाद्यपेक्षया आकाशप्रदेशपक्तिषु इत इदमिति व्यवहारोपपत्तेः ।
माननेपर परमाणु आदिमें अतिप्रसंग दोष आता है। अर्थात् परमाणु आदिको भी चक्षु आदि इन्द्रियाँ नहीं ग्रहण करतीं, इसलिए उनमें भी रूपादिकका अभाव मानना पड़ेगा। इसी प्रकार जल गन्धवाला है, स्पर्शवाला होनेसे, पृथिवीके समान । अग्नि भी रस और गन्धवाली है, रूपवाली होनेसे, पृथिवीके समान । मन भी दो प्रकारका है—द्रव्यमन और भावमन। उनमें-से भावमन ज्ञानस्वरूप है और ज्ञान जीवका गुण है, इसलिए इसका आत्मामें अन्तर्भाव होता है। तथा द्रव्यमनमें रूपादिक पाये जाते हैं, अतः वह पुद्गलद्रव्यको पर्याय है। यथा-मन रूपादिवाला है, ज्ञानोपयोगका करण होनेसे, चक्षु इन्द्रियके समान । शंका-शब्द अमूर्त होते हुए भी उसमें ज्ञानोपयोगकी करणता देखी जाती है, अतः मनको रूपादिवाला सिद्ध करनेके लिए जो हेतु दिया है वह व्यभिचारी है ? समाधान नहीं; क्योंकि शब्द पौद्गलिक है, अतः उसमें मूर्तपना बन जाता है । शंका--जिस प्रकार परमाणुओंके रूपादि गुणवाले कार्य देखे जाते हैं अतः वे रूपादिवाले सिद्ध होते हैं उस प्रकार वायु और मनके रूपादि गुणवाले कार्य नहीं दिखाई देते ? समाधान---नहीं, क्योंकि वायु और मनके भी रूपादि गुणवाले कार्य सिद्ध हो जाते हैं; क्योंकि सब परमाणुओंमें सब रूपादि गुणवाले कार्योंके होनेकी योग्यता मानी है । कोई पार्थिव आदि भिन्न-भिन्न जातिके अलग-अलग परमाणु हैं, यह बात नहीं है; क्योंकि जातिका संकर होकर सब कार्योंका आरम्भ देखा जाता है। इसी प्रकार दिशाका भी आकाशमें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि सूर्यके उदयादिककी अपेक्षा आकाश प्रदेशपंक्तियोंमें यहाँसे यह दिशा है इस प्रकारके व्यवहारकी उत्पत्ति होती है।
विशेषार्थ-जातिकी अपेक्षा ये जीव पुद्गलादि जितने पदार्थ हैं वे सब द्रव्य कहलाते हैं। द्रव्य इस शब्दमें दो अर्थ छिपे हुए हैं----द्रवणशीलता और ध्रुवता । जगत्का प्रत्येक पदार्थ परिणमनशील होकर भी ध्रुव है, इसलिए उसे द्रव्य कहते हैं । आशय यह है कि प्रत्येक पदार्थ अपने गणों और पर्यायोंका कभी भी उल्लंघन नहीं करता। उसके प्रवाहित होने की नियत धारा है जिसके आश्रयसे वह प्रवाहित होता रहता है । द्रव्य इस शब्दका उपयोग हमें जैन दर्शनके सिवा वैशेषिक दर्शनमें विशेष रुपसे व्यवहृत दिखाई देता है। वैशेषिकदर्शनमें गुण-गुणी, क्रिया-क्रियावान् और सामान्य-विशेषमें सर्वथा भेद माना गया है, इसलिए वह द्रव्यत्वके सम्बन्धसे द्रव्य होता है, द्रव्य शब्दका ऐसा अर्थ करता है, किन्त उसका यह अर्थ संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि द्रव्यत्व नामका कोई स्वतन्त्र पदार्थ अनुभवमें नहीं आता । इस दर्शनने द्रव्यके पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, 1. इति चेत्पर -- मु., आ. दि. 1, दि. 2 । 2. -योगकारणत्व-- मु । 3. --कार्यत्वदर्श- मु.। 4. दृश्यते म तेषा-- आ., दि. 1, दि. 21 5. तदुत्पत्त: मु.।
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