________________
---5158534] पंचमोऽध्यायः
1203 $ 532. उक्तानां द्रव्याणां विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥4 $533. नित्यं ध्रुवमित्यर्थः । निर्धवे त्यः' इति निष्पादितत्वात् । धर्मादीनि द्रव्यानि गतिहेतुत्वादिविशेषलक्षणद्रव्यार्थादेशादस्तित्वादिसामान्यलक्षणद्रव्यादेशाच्च कदाचिदपि न व्ययन्तीति नित्यानि । वक्ष्यते हि 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' इति । इयत्ताऽव्यभिचारादवस्थितानि । धर्माटीनि षडपि द्रव्याणि कदाचिदपि षडिति इयत्त्व ना।
डिति इयत्वं नातिवर्तन्ते । ततोऽवस्थितानीत्युच्यन्ते । न विद्यते रूपमेषामित्यरूपाणि, रूपप्रतिषेधे तत्सहचारिणां रसादीनामपि प्रतिषेधः । तेन अरूपाण्यमूर्तानीत्यर्थः ।
534. यथा सर्वेषां द्रव्याणां नित्यावस्थितानि' इत्येतत्साधारणं लक्षण प्राप्तं तथा पुद्गलानामपि अरूपित्वं प्राप्तम्, अतस्तदपवादार्थमाह
रूपिणः पुद्गलाः ॥5॥ मन, दिशा आदि अनेक भेद किये हैं, किन्तु विचार करनेपर पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुका अन्तर्भाव पुद्गलमें हो जाता है। पुद्गलका स्वरूप आगे बतलानेवाले हैं । वहाँ उसे रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाला बतलाया है। पृथ्वी जलादि जो पदार्थ पहले कह आये हैं, उन सबमें ये स्पर्शादिक उपलब्ध होते हैं यह निर्विवाद है । मनके दो भेद हैं-द्रव्यमन और भावमन । उनमें से द्रव्यमनका अन्तर्भाव पुद्गलमें और भावमनका अन्तर्भाव जीवमें होता है। इसी प्रकार दिशा आकाशसे पृथक भूत पदार्थ नहीं है क्योंकि सूर्यके उदयादिकी अपेक्षा आकाशमें ही दिशा का व्यवहार होता है। इस प्रकार विचार करनेपर जैन दर्शनमें जो जीवादि पदार्थ गिनाये गये हैं वे ही द्रव्य ठहरते हैं अन्य नहीं, ऐसा सिद्ध होता है।
8532. अब उक्त द्रव्योंके विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंउक्त द्रव्य नित्य हैं, अवस्थित हैं और अरूपी हैं ॥4॥
8 533. नित्य शब्दका अर्थ ध्रुव है। 'नेधुंवे त्यः' इस वार्तिकके अनुसार 'नि' शब्दसे ध्रुव अर्थ में 'त्य' प्रत्यय लगाकर नित्य शब्द बना है। पर्यायाथिकनय को अपेक्षा गतिहेतुत्व आदि रूप विशेष लक्षणोंको ग्रहण करनेवाले और द्रव्याथिक लयकी अपेक्षा अस्तित्व आदि रूप सामान्य लक्षणको ग्रहण करनेवाले ये छहों द्रव्यकभी भी विनाशको प्राप्त नहीं होते, इसलिए निस्व हैं। 'तदभावाव्ययं नित्यम्' इस सूत्र द्वारा यही बात आगे कहनेवाले भी हैं । संख्याका कभी • व्यभिचार नहीं होता, इसलिए ये अवस्थित हैं। धर्मादिक छहों द्रव्य कभी भी छह इस संख्याका उल्लंघन नहीं करते, इसलिए ये अवस्थित कहे जाते हैं। इनमें रूप नहीं पाया जाता इसलिए अरूपी हैं । यहाँ केवल रूपका निषेध किया है, किन्तु रसादिक उसके सहचारी हैं अतः उनका भी निषेध हो जाता है । इससे अरूपीका अर्थ अमूर्त होता है।
6534. जिस प्रकार सब द्रव्योंका नित्य और अवस्थित यह साधारण लक्षण प्राप्त होता है उसी प्रकार पुद्गलोंमें अरूपीपना भी प्राप्त होता है, अतः इसका अपवाद करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पुद्गल रूपी हैं ॥5॥ 1.नि ध्रुवे नित्य इति आ., दि. 1, दि. 21 ने वेऽर्थे त्यः ता.। 2. 'त्यक्नेध्रुव इति वक्तठम्'-पा 4. 2. 104 वातिकम । नेवे-जैनेन्द्र. 3, 2, 82 वार्तिकम् । 3. --षेधेन तत्सह--सु.। 4. लक्षणं तथा अरुपित्वं पुद्गलानामपि प्राप्तम् मु.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org