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208] सर्वार्थसिद्धी
[5188540मित्तत्वाच्चक्षुर्वत् । यथा रूपोपलब्धौ चक्षुनिमित्त मिति न व्याक्षिप्तमनस्कस्यापि भवति । अधिकृतानां धर्माधर्माकाशानां निष्क्रियत्वेऽभ्युपगते जीवपुद्गलानां सक्रियत्वमर्थादापन्नम् । कालस्यापि सक्रियत्वमिति चेत् ? न; अनधिकारात् । अत एवासावेतैः सह नाधिक्रियते।।
$ 540. अजीवकाया इत्यत्र कायग्रहणेन प्रदेशास्तित्वमात्रं नितिं न त्वियत्तावधारिता प्रदेशानामतस्तन्निर्धारणार्थ
असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवानाम् ॥8॥ 8541. संख्यामतोता असंख्येयाः । असंख्येयास्त्रिविधः-जघन्य उत्कृष्टोऽजघन्योत्कृष्टश्चेति।तत्रेहाजघन्योत्कृष्टासंख्येयः परिगृह्यते । प्रदिश्यन्त इति प्रदेशाः । वक्ष्यमाणलक्षणः परमाणुः स यावति क्षेत्र व्यवतिष्ठते स प्रदेश इति व्यवह्रियते। धर्माधर्मेकजीवास्तुल्यासंख्येयप्रदेशाः । तत्र धर्माधर्मो निष्क्रियौ लोकाकाशं व्याप्य स्थितौ । जीवस्तावत्प्रदेशोऽपि सन् संहरणविसर्पणस्वभावत्वात् कर्मनिवर्तितं शरीरमणु महद्वाऽधितिष्ठस्तावदवगाह्य वर्तते । यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मन्दरस्याधश्चित्रवज्रपटलमध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशा व्यवतिष्ठन्ते । इतरे प्रदेशा ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते। यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि चक्षु इन्द्रियके समान ये बलाधान में निमित्तमात्र हैं । जैसे चक्षु इन्द्रिय रूपके ग्रहण करने में निमित्तमात्र है, इसलिए जिसका मन व्याक्षिप्त है उसके चक्षु इन्द्रियके रहते हुए भी रूपका ग्रहण नहीं होता। उसी प्रकार प्रकृतमें समझ लेना चाहिए। इस प्रकार अधिकार प्राप्त धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यको निष्क्रिय मान लेने पर जीव और पुद्गल सक्रिय हैं यह प्रकरणसे अपने-आप प्राप्त हो जाता है । शंका-काल द्रव्य भी सक्रिय होगा?
नि-नहीं; क्योकि उसका यहाँ अधिकार नहीं है। इसलिए इन द्रव्यो के साथ उसका अधिकार नहीं किया है।
5540. 'अजीवकायाः' इत्यादि सत्रमें 'काय' पदके ग्रहण करनेसे प्रदेशोंका अस्तित्व मात्र जाना जाता है, प्रदेशोंकी संख्या नहीं मालूम होती, अत: उसका निर्धारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंधर्म, अधर्म और एक जीवके असंख्यात प्रदेश हैं ॥8॥
8541. जो संख्यासे परे हैं वे असंख्यात कहलाते हैं। असंख्यात तीन प्रकारका है--- जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्ट । उनमें से यहाँ अजघन्योत्कृष्ट असंख्यातका ग्रहण किया और "प्रदिश्यन्ते इति प्रदेशः' यह प्रदेश शब्दकी व्यत्पत्ति है। तात्पर्य यह है कि जिससे विकसित माणका संकेत मिलता है, उसे प्रदेश कहते हैं । परमाणुका लक्षण आगे कहेंगे । वह जितने क्षेत्रमें रहता है वह प्रदेश है ऐसा व्यवहार किया जाता है। धर्म, अधर्म और एक जीवके प्रदेशोंकी संख्या समान है । इनमें से धर्म और अधर्मद्रव्य निष्क्रिय हैं और लोकाकाशभरमें फैले हुए हैं। यद्यपि जीवके प्रदेश धर्म और अधर्म द्रव्यके बराबर ही हैं तो भी वह संकोच और विस्तारस्वभाववाला है, इसलिए कर्मके निमित्तसे छोटा या बड़ा जैसा शरीर मिलता है उतनी अवगाहनाका होकर रहता है। और केवलिसमुद्घातके समय जब यह लोकको व्यापता है उस समय जीवके मध्यके आठ प्रदेश मेरु पर्वतके नीचे चित्रा पथिवीके वज्रमय पटलके मध्यमें स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर, नीचे और तिरछे समस्त लोकको व्याप लेते हैं।
1. -निमित्तमपि न मु., ता., ना.।
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