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218] सर्वार्थसिद्धौ
[51198 563 गलिकमित्यवसेयम् । वाग् द्विविधा--द्रव्यवाग् भाववागिति । तत्र भाववाक् तावद्वीर्यान्तरायमतिश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभनिमित्तत्वात् पौद्गलिकी । तदभावे तद्वत्त्यभावात् । तत्सामोपेतेन क्रियावतात्मना प्रेर्यमाणाः पुद्गला वाक्त्वेन विपरिणमन्त इति द्रव्यवागपि पौद्गलिकी; श्रोत्रेन्द्रियविषयत्वात् । इतरेन्द्रियविषया कस्मान्न भवति । तद्ग्रहणायोग्यत्वात् । घ्राणग्राह्य गन्धद्रव्ये रसाद्यनुपलब्धिवत् । अमूर्ता वागिति चेत् ? न; मूर्तिमद्ग्रहणावरोधव्याघाताभिभवादिदर्शनान्मूर्तिमत्त्वसिद्धेः । मनो द्विविधां द्रव्यमनो भावमनश्चेति । भावमनस्तावल्लब्ध्युपयोगलक्षणं पुद्गलावलम्बनत्वात् पौद्गलिकम् । द्रव्यमनश्च, ज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभप्रत्यया गुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्यात्मनोऽनुग्राहकाः पुद्गला मनस्त्वेन परिणता इति पौद्गलिकम् । कश्चिदाह मनो द्रव्यान्तरं रूपादिपरिणामरहितमणुमात्रं तस्य पौद्गलिकत्वमयुक्तमिति ? तदयुक्तम् । कयम् ? उच्यते-तदिन्द्रियेणात्मना च संबद्धं वा स्यादसंबद्धं वा । यद्यसंबद्धम्, तन्नात्मन उपकारकं भवितुमर्हति इन्द्रियस्य च साचिव्यं न करोति । अथ संबद्धम्, एकस्मिन् प्रदेशे संबद्धं सत्तदणु इतरेषु प्रदेशेषु उपकारं न कुर्यात् । अदृष्टवशादस्य अलातचक्रवत्परिभ्रमणमिति चेत् । न; तत्सामर्थ्याभावात् । अमूर्तस्यात्मनो निष्क्रियस्यादृष्टो गुणः, स निष्क्रियः सन्नन्यत्र क्रियारम्भे न समर्थः । दृष्टो हि वायुद्रव्यविशेषः पौद्गलिक हैं । उसी प्रकार कार्मण शरीर भी गुड़ और काँटे आदि मूर्तिमान् पदार्थों के मिलने पर फल देते हैं, इससे ज्ञात होता है कि कार्मण शरीर भी पौद्गलिक हैं । वचन दो प्रकार का है-- द्रव्यवचन और भाववचन। इनमें-से भाववचन वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरण तथा श्रुतज्ञानावरण कर्मोंके क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मके निमित्तसे होता है, इसलिए वह पौद्गलिक है, क्योंकि पुद्गलोंके अभावमें भाववचनका सद्भाव नहीं पाया जाता। चूंकि इस प्रकारकी सामर्थ्यसे युक्त क्रियावाले आत्माके द्वारा प्रेरित हो कर पुद्गल वचनरूपसे परिणमन करते हैं, इसलिए द्रव्य वचन भी पौद्गलिक हैं। दूसरे द्रव्य वचन श्रोत्र इन्द्रियके विषय हैं, इससे भी ज्ञात होता है कि वे पौद्गलिक हैं । शंका-वचन इतर इन्द्रियोंके विषय क्यों नहीं होते ? समाधान-घ्राण इन्द्रिय गन्धको ग्रहण करती है उससे जिस प्रकार रसादिककी उपलब्धि नहीं होती उसी प्रकार इतर इन्द्रियोंमें वचनके ग्रहण करनेकी योग्यता नहीं है । शंका-वचन अमूर्त हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि वचनोंका मूत इन्द्रियोक द्वारा ग्रहण हाता है, वे मूत भोत आदिक द्वारा रुक जाते है, प्रतिकूल वायू आदिके द्वारा उनका व्याघात देखा जाता है तथा अन्य कारणोंसे उनका अभिभव आदि देखा जाता है। इससे शब्द मूर्त सिद्ध होते हैं। मन दो प्रकारका है--द्रव्यमन और भावमन । लब्धि और उपयोगलक्षण भावमन पुद्गलोंके आलम्बनसे होता है, इसलिए पौद्गलिक है । तथा ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे तथा अंगोपांग नामकर्मके निमित्तसे जो पुद्गल गुण-दोषका विचार और स्मरण आदि उपयोगके सम्मुख हुए आत्माके उपकारक हैं वे ही मनरूपसे परिणत होते हैं, अतः द्रव्यमन भी पौद्गलिक है । शंका-मन एक स्वतन्त्र द्रव्य है । वह रूपादिरूप परिणमनसे रहित है और अणुमात्र है, इसलिए उसे पौद्गलिक मानना अयुक्त है। समाधान-शंकाकारका इस प्रकार कहना अयुक्त है । खुलासा इस प्रकार है-वह मन आत्मा और इन्द्रियसे सम्बद्ध है या असम्बद्ध । यदि असम्बद्ध है. तो वह आत्माका उपकारक नहीं हो सकता और इन्द्रियोंकी सहायता भी नहीं कर सकता। यदि सम्बद्ध है तो जिस प्रदेशमें वह अण मन सम्बद्ध है उस प्रदेशको छोड़ कर इतर प्रदेशोंका उपकार नहीं कर सकता । शंका–अदृष्ट नामका एक गुण है उसके वशसे वह मन अलातचक्रके समान सब प्रदेशोंमें घूमता रहता है ? समाधान नहीं, क्योंकि अदृष्ट नामके गुणमें इस प्रकारकी सामर्थ्य नहीं पायी जाती। यतः अमूर्त और निष्क्रिय
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