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216] सर्वार्थसिद्धौ
[51188560सर्वनेने निरतिशयप्रत्यक्षज्ञानचक्षुषा धर्मादयः सर्वे उपलभ्यन्ते । तदुपदेशाच्छ श्रुतज्ञानिभिरपि ।
8560. अत्राह, यद्यतीन्द्रिययोर्धर्माधर्मयोरुपकारसंबन्धेनास्तित्वमवध्रियते, तदनन्तरमुद्दिष्टस्य नभसोऽतीन्द्रियस्याधिगमे क उपकार इत्युच्यते--
आकाशस्यावगाहः ॥18॥ 8561. 'उपकारः' इत्यनुवर्तते । जीवपुद्गलादीनामवगाहिनामवकाशदानमवगाह आकाशस्योपकारो वेदितव्यः । आह, जीवपूदगलानां क्रियावतामवगाहिनामवकाशदानं युक्तम् । धर्मास्ति कायादयः पुननिष्क्रिया नित्यसंबन्धास्तेषां कथमवगाह इति चेत् ? न; उपचारतस्तत्सिद्धः। यथा गमनाभावेऽपि 'सर्वगतमाकाशम्' इत्युच्यते; सर्वत्र सद्भावात्, एवं धर्माधर्मावपि अवगाह क्रियाभावेऽपि सर्वत्र व्याप्तिदर्शनादवगाहिनावित्युपचर्येते । आह यद्यवकाशवानमस्य स्वभावो वज्राविभिलॊष्टादीनां भित्त्यादिभिर्गवादीनां च व्याघातो न प्राप्नोति । दृश्यते च व्याघातः। तस्मावस्यावकाशदानं हीयते इति ? नैष दोषः; वज्रलोष्टादीनां स्थूलानां परस्परव्याघात इति नास्यावकाशदानसामर्थ्य हीयते; तत्रावगाहिनामेव व्याघातात् । वज्रादयः पुनः स्थूलत्वात्परस्परं प्रत्यवकाशदानं कुर्वन्तीति नासावाकाशदोषः। ये खलु पुद्गलाः सूक्ष्मास्त' परस्परं प्रत्यवकाशदानं कवन्ति। यद्येवं नेदमाकाशस्यासाधारणं लक्षणम्; इतरेषामापि तत्सद्भावादिति ? तन्नः सर्वपदार्थानां हैं ऐसे सर्वज्ञ देव सब धर्मादिक द्रव्योंको प्रत्यक्ष जानते हैं और उनके उपदेशसे श्रुतज्ञानी भी जानते हैं।
8560. यदि अतीन्द्रिय धर्म और अधर्म द्रव्यका उपकारके सम्बन्धसे अस्तित्व स्वीकार किया जाता है तो इनके अनन्तर जो अतीन्द्रिय आकाश द्रव्य कहा है, ऐसा कौन-सा उपकार है जिससे उसका ज्ञान होता है ? अब इसी बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अवकाश देना आकाशका उपकार है॥18॥
8561. इस सूत्रमें 'उपकार' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। अवगाहन करनेवाले जीव और पुद्गलोंको अवकाश देना आकाशका उपकार जानना चाहिए। शंका–अवगाहन स्वभाव वाले जीव और पुगद्ल क्रियावान् हैं इसलिए इनको अवकाश देना युक्त है परन्तु धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय और नित्य सम्बन्धवाले हैं, उनका अवगाह कैसे बन सकता है ? समाधान नहीं, क्योंकि उपचारसे इसकी सिद्ध होती है । जैसे गमन नहीं करने पर भी आकाश सर्वगत कहा जाता है, क्योंकि वह सर्वत्र पाया जाता है इसी प्रकार यद्यपि धर्म और अधर्म द्रव्यमें अवगाहरूप क्रिया नहीं पायी जाती तो भी लोकाकाशमें वे सर्वत्र व्याप्त हैं, अतः वे अवगाही हैं ऐसा: उपचार कर लिया जाता है। शंका-यदि अवकाश देना आकाशका स्वभाव है तो वज्रादिकसे लोढ़ा आदिकका और भीत आदिकसे गाय आदिका व्याघात नहीं प्राप्त होता है, किन्तु व्याघात तो देखा जाता है । इससे मालूम होता है कि अवकाश देना आकाशका स्वभाव नहीं ठहरता ? समाधान--यह कोई दोष नहीं है,क्योंकि वज्र और लोढ़ा आदि स्थूल पदार्थ हैं, इसलिए उनका आपसमें व्याघात होता है, अतः आकाशकी अवकाश देने रूप समार्थ्य नहीं नष्ट होती। यहाँ जो व्याघात दिखाई देता है वह अवगाहन करनेवाले पदार्थोंका ही है। तात्पर्य यह है कि वज्रादिक स्थूल पदार्थ हैं, इसलिए वे परस्पर अवकाश नहीं देते, यह कुछ आकाशका दोष नहीं है। हाँ, जो पुद्गल सूक्ष्म होते हैं वे परस्पर अवकाश देते हैं । शंका-यदि ऐसा है तो यह आकाशका 1. उपकार इति वर्तते आ., ता., ना.। 2. -स्तेऽपि परस्प- आ., दि. 1, दि. 2। 3. -क्षणमिति परे- आ., दि. 1, दि. 2 ।
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