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214] सर्वार्थसिद्धौ
[5117 $ 558वशान्महदणु च शरीरमधितिष्ठतस्तद्वशात्प्रदेशसंहरणविसर्पणस्वभावस्य तावत्प्रमाणतायां सत्यामसंख्येयभागादिषु वृत्तिरुपपद्यते, प्रदीपवत् । यथा निरावरणव्योमप्रदेशेऽनव धृतप्रकाशपरिमाणस्य प्रदीपस्य शरावमणिकापवरकाद्यावरणवशात्तत्परिमाणतेति । अत्राह धर्मादीनामन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्संकरे सति, एकत्वं प्राप्नोतीति ? तन्न; परस्परमत्यन्तसंश्लेषे सत्यपि स्वभावं न जहति। 'उक्तंच
"अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स ।
मेलंता वि य णिच्चं सगसब्भाव ण जहंति ।" 8558. यद्येवं धर्मादीनां स्वभावभेद उच्यतामित्यत आह--
गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः ।।17।। 8559. देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गतिः । तद्विपरीता स्थितिः । उपगृह्यत इत्युपग्रहः। गतिश्च स्थितिश्च गतिस्थिती । गतिस्थिती एव उपग्रही गतिस्थित्युपग्रहो । धर्माधर्मयोरिति कतुं निर्देशः । उपक्रियत इत्युपकारः । कः पुनरसौ ? गत्युपग्रहः स्थित्युपग्रहश्च । यद्येवं द्वित्वनिर्देशः प्राप्नोति । नैष दोषः; सामान्येन व्युत्पादितः शब्द उपात्तसंख्यः शब्दान्तरसंबन्धे सत्यपि न पूर्वोपात्ता संख्या जहाति । यथा-"साधोः कार्यं तपःश्रुते' इति । एतदुक्तं भवति-गतिपरिणामिनां जीवपुद्गलानां गत्युपग्रहे कर्तव्ये धर्मास्तिकायः साधारणाश्रयो जलवन्मत्स्यगमने। तथा स्थितिपरिणामिनां प्राप्त होनेसे वह मूर्त हो रहा है और कार्मण शरीरके कारण वह छोटे-बड़े शरीरमें रहता है, इसलिए वह प्रदेशोंके संकोच और विस्तार स्वभाववाला है और इसलिए शरीरके अनुसार दीपकके समान उसका लोकके असंख्यातवें भाग आदिमें रहना बन जाता है। जिस प्रकार निरावरण आकाश-प्रदेशमें यद्यपि दीपकके प्रकाशके परिमाणका निश्चय नहीं होता तथापि वह सकोरा, ढक्कन, तथा आवरण करनेवाले दूसरे पदार्थोके आवरणके वशसे तत्परिमाण होता है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। शंका-धर्मादिक द्रव्योंके प्रदेशोंका परस्पर प्रवेश होनेके कारण संकर होनेसे अभेद प्राप्त होता है ? समाधान नहीं; क्योंकि परस्पर अत्यन्त संश्लेण सम्बन्ध हो जाने पर भी वे अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते; इसलिए उनमें अभेद नहीं होता । कहा भी है
'सब द्रव्य परस्पर प्रविष्ट हैं, एक दूसरेको अवकाश देते हैं, और सदा मिलकर रह रहे हैं तो भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते।'
8558. यदि ऐसा है तो धर्मादिक द्रव्योंका स्वभावभेद कहना चाहिए इस लिए आगेका सूत्र कहते हैं
गति और स्थितिमें निमित्त होना यह क्रमसे धर्म और अधर्म द्रव्यका उपकार है॥17॥
8559. एक स्थानसे दूसरे स्थानके प्राप्त करानेमें जो कारण है उसे गति कहते हैं। स्थितिका स्वरूप इससे उलटा है। उपग्रह शब्द उपकारका पर्यायवाची है जिसकी व्युत्पत्ति 'उपगृह्यते' है। गति और स्थिति इन दोनोंमें द्वन्द्व समास है। गति और स्थिति ही उपग्रह हैं, इसलिए 'गतिस्थित्युपग्रहो' यह सूत्रवचन कहा है । 'धर्माधर्मयोः' यह कर्ता अर्थमें षष्ठी निर्देश है । उपकारकी व्युत्पत्ति 'उपक्रियते' है । शंका-यह उपकार क्या है ? समाधान-गति उपग्रह और स्थिति उपग्रह यही उपकार है । शंका-यदि ऐसा है तो द्विवचनका निर्देश प्राप्त होता है ? समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सामान्यसे ग्रहण किया गया शब्द जिस संख्याको प्राप्त कर लेता है दूसरे शब्दके सम्बन्ध होनेपर भी वह उस संख्याको नहीं छोड़ता । जैसे 'साधोः 1. -देशेऽवबु- ता. ना.। 2. पंचत्थि. गा. 7। 3. -दितः उपात्त- ता., ना., मु.।
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