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-51168557 पंचमोऽध्यायः
__[213 8554. अथ जीवानां कथमवगाहनमित्यत्रोच्यते
असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥15॥ 8555. 'लोकाकाशे' इत्यनुवर्तते । तस्यासंख्येयभागीकृतस्यैको भागोऽसंख्येयभाग इत्युच्यते । स आदिर्येषां तेऽसंख्येयभागादयः । तेषु जीवानामवगाहो वेदितव्यः । तद्यथा-एकस्मिन्नसंख्येयभागे एको जीवोऽवतिष्ठते । एवं द्वित्रिचतुरादिष्वपि असंख्येयभागेषु आ सर्वलोकादवगाहः प्रत्येतव्यः । नानाजीवानां तु सर्वलोक एव । यद्येकस्मिन्नसंख्येयभागे एको जीवोऽवतिष्ठते, कथं द्रव्यप्रमाणेनानन्तानन्तो जीवराशिः सशरीरोऽवतिष्ठते लोकाकाशे ? सूक्ष्मबादरभेदादवस्थानं प्रत्येतव्यम् । बादरास्तावत्सप्रतिघातशरीराः । सूक्ष्मास्तु सशरीरा' अपि सूक्ष्मभावादेवैकनिगोदजीवावगाह्येऽपि प्रदेशे साधारणशरीरा अनन्तानन्ता वसन्ति । न ते परस्परेण बादरैश्च व्याहन्यन्त इति नास्त्यवगाहविरोधः ।।
556. अत्राह लोकाकाशतुल्यप्रदेश एकजीव इत्युक्तम्, तस्य कथं लोकस्यासंख्येयभागाविषु वृत्तिः । ननु सर्वलोकव्याप्त्यैव भवितव्यमित्यत्रोच्यते
प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥16॥ $ 557. अमूर्तस्वभावस्यात्मनोऽनादिबन्धं प्रत्येकत्वात् कथंचिन्मूर्ततां विभ्रतः कार्मणशरीर8554. अब जीवोंका अवगाह किस प्रकार है इस बातको अगले सूत्र में कहते हैंलोकाकाशके असंख्यातवें भाग आदिमें जीवोंका अवगाह है ॥15॥
8555. इस सूत्रमें 'लोकाकाशे' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। उसके असंख्यात भाग करके जो एक भाग प्राप्त हो वह असंख्यातवाँ भाग कहलाता है। वह जिनके आदिमें है वे सब असंख्यातवें भाग आदि हैं । उनमें जीवोंका अवगाह जानना चाहिए। वह इस प्रकार है-एक एक असंख्यातवें भागमे एक जीव रहता है। इस प्रकार दो, तीन ओर चार आदि असंख्यात भागों से लेकर सब लोकपर्यन्त एक जीवका अवगाह जानना चाहिए। किन्तु नाना जीवों अवगाह सब लोकमें ही होता है। शंका यदि लोकके एक असंख्यातवें भागमें एक जीव रहता है तो संख्याकी अपेक्षा अनन्तानन्त सशरीर जीवराशि लोकाकाशमें कैसे रह सकती है? समाधान-जीव दो प्रकारके हैं सूक्ष्म और बादर, अतः उनका लोकाकाश में अवस्थान बन जाता है। जो बादर जीव हैं उनका शरीर तो प्रतिघात सहित होता है किन्तु जो सक्षम हैं वे यद्यपि सशरीर हैं तो भी सूक्ष्म होनेके कारण एक निगोद जीव आकाशके जितने प्रदेशोंको अवगाहन करता है उतनेमें साधारण शरीरवाले अनन्तानन्त जीव रह जाते हैं। वे परस्परमें और बादरोंके साथ व्याघातको नहीं प्राप्त होते, इसलिए लोकाकाश में अनन्तानन्त जीवोंके अवगाहमें कोई विरोध नहीं आता।
6556. यहाँ पर शंकाकारका कहना है कि जब एक जीवके प्रदेश लोकाकाशके बराबर बतलाये हैं तो लोकके असंख्यातवें भाग आदिमें एक जीव कैसे रह सकता है, उसे तो सब लोक को व्याप्त कर ही रहना चाहिए ? अब इस शंकाका समाधान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
क्योंकि प्रदीपके समान जीवके प्रदेशोंका संकोच और विस्तार होने के कारण लोकाकाशके असंख्येयभागादिकमें जीवोंका अवगाह बन जाता है ॥16॥
8557. चूंकि आत्मा अमूर्त स्वभाव है तो भी अनादिकालीन बन्धके कारण एकपनेको 1. सशरीरत्वेऽपि आ., दि. 1, दि. 2। 2.-बगाहेऽपि मु. ।
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