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सर्वार्थसिद्धौ
[516 § 535
8535. रूपं मूर्तिरित्यर्थः । का मूर्तिः ? रूपादिसंस्थानपरिणामो मूर्तिः । रूपमेषामस्तीति रूपिणः । मूर्तिमन्त इत्यर्थः । अथवा रूपमिति गुणविशेषवचन - शब्दः । तदेषामस्तीति रूपिणः । रसाद्यग्रहणमिति चेत् ? न; तदविनाभावात्तदन्तर्भावः । 'पुद् गलाः' इति बहुवचनं भेदप्रतिपादनार्थम् । भिन्ना हि पुद्गलाः; स्कन्धपरमाणुभेदात् । तद्विकल्प उपरिष्टाद्वक्ष्यते । यदि प्रधानवदरूपित्वमेकत्वं चेष्टं स्यात्, विश्वरूप कार्यदर्शनविरोधः स्यात् ।
8536. आह, कि पुद्गलवद्धर्मादीन्यपि द्रव्याणि प्रत्येकं भिन्नानीत्यत्रोच्यते' आकाशादेकद्रव्यारि ||6||
8537. 'आ' अयमभिविध्यर्थः । सौत्रीमानुपूर्वी 'मासृत्येतदुक्तम् । तेन धर्माधर्माका - शानि गृह्यन्ते । 'एक' शब्दः संख्यावश्चनः । तेन द्रव्यं विशिष्यते, एकं द्रव्यं एकद्रव्यमिति । यद्येवं बहुवचनमयुक्तम् ? धर्माद्यपेक्षया बहुत्वसिद्धिर्भवति । ननु एकस्यानेकार्थप्रत्यायनशक्तियोगावेकैकमित्यस्तु, लघुत्वाद् । 'द्रव्य' ग्रहणमनर्थकम् ? ( सत्यम् ; 5 ) तथापि द्रव्यापेक्षया एकत्वख्यापनार्थं
8535. रूप और मूर्ति इनका एक अर्थ है । शंका- मूर्ति किसे कहते हैं ? समाधानरूपादिसंस्थान के परिणामको मूर्ति कहते हैं। जिनके रूप पाया जाता है वे रूपी कहलाते हैं । इसका अर्थ मूर्तिमान् है । अथवा, रूप यह गुणविशेषका वाची शब्द है । वह जिनके पाया जाता है वे रूपी कहलाते हैं । शंका- यहाँ रसादिकका ग्रहण नहीं किया है ? समाधान नहीं; क्योंकि रसादिक रूपके अविनाभावी हैं, इसलिए उनका अन्तर्भाव हो जाता है ।
पुद्गलोंके भेदोंका कथन करनेके लिए सूत्र में 'पुद्गला' यह बहुवचन दिया है । स्कन्ध और परमाणु के भेदसे पुद्गल अनेक प्रकारके हैं । पुद्गल के ये सब भेद आगे कहेंगे । यदि पुद्गलको प्रधानके समान एक और अरूपी माना जाय तो जो विश्वरूप कार्य दिखाई देता है उसके होनेमें विरोध आता है ।
8536. पुद्गल द्रव्यके समान क्या धर्मादिक प्रत्येक द्रव्य भी अनेक हैं ? अब इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
आकाश तक एक-एक द्रव्य हैं ||6||
§ 537. इस सूत्र में 'आङ्' अभिविधि अर्थ में आया है। सूत्र सम्बन्धी आनुपूर्वीका अनुसरण करके यह कहा है । इससे धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनका ग्रहण होता है। एक शब्द संख्यावाची है और वह द्रव्यका विशेषण है । तात्पर्य यह है कि धर्म, अधर्म और आकाश ये एक-एक द्रव्य हैं। शंका-यदि ऐसा है तो सूत्र में 'एकद्रव्याणि' इस प्रकार बहुवचनका प्रकार करना अयुक्त है ? समाधान-धर्मादिक द्रव्योंकी अपेक्षा बहुवचन बन जाता है । शंका - एकमें अनेकके ज्ञान कराने की शक्ति होती है, इसलिए 'एकद्रव्याणि' के स्थानमें 'एकैकम्' इतना ही रहा आवे । इससे सूत्र छोटा हो जाता है । तथा 'द्रव्य' पदका ग्रहण करना भी निष्फल है ? समाधान-ये धर्मादिक द्रव्यको अपेक्षा एक है इस बातके बतलानेके लिए सूत्रमें 'द्रव्य' पदका ग्रहण किया है । तात्पर्य यह है कि यदि सूत्र में 'एकैकम्' इतना ही कहा जाता तो यह नहीं मालूम पड़ता कि ये धर्मादिक द्रव्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इनमें से किसकी अपेक्षा एक हैं, अतः सन्देह निवारण करनेके लिए 'एकद्रव्याणि' पद रखा है। इनमें से धर्म और अधर्म द्रव्यके क्षेत्र-की अपेक्षा असंख्यात विकल्प इष्ट होनेसे और भावकी अपेक्षा अनन्त विकल्प इष्ट होनेसे तथा
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1. शब्द: । तेषा आ., दि. 1, दि. 2 1 2. ' ईषदर्थे क्रियायोगे मर्यादाभिविधौ च यः । एतमातं ङितं विद्याद् वाक्यस्मरयोरङित् । 3. पूर्वीमनुसृत्यै- मु. 4. -वति । एक- आ. दि. 1, दि- 2 1 5. र्थकं । तत्क्रियते दृष्या - ता ना. । -र्थकं । तज्ज्ञायते दूव्या- आ. दि. 1, दि. 2 ।
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