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210] सर्वार्थसिद्धौ
[5111 $ 546-. $ 546: 'पुद्गलानाम्' इत्यविशेषवचनात्परमाणोरपि प्रदेशवत्त्वप्रसंगे तत्प्रतिषेधार्थमाह
नारणोः ॥1॥ 6547. अणोः 'प्रदेशा न सन्ति' इति वाक्यशेषः । कुतो न सन्तीति चेत् ? प्रदेशमात्रत्वात । यथा आकाशप्रदेशस्यैकस्य प्रदेशभेदाभावादप्रदेशत्वमेवमणोरपि प्रदेशमात्रत्वात्प्रदेशभेवाभावः । किं च ततोऽल्पपरिमाणाभावात् । न ह्मणोरल्पीयानन्योऽस्ति, यतोऽस्य प्रदेशा भिधेरन् । 8548. एषामवधूतप्रदेशानां धर्मादीनामाधारप्रतिपत्त्यर्थमिदमुच्यते
लोकाकाशेऽवगाहः ॥12॥ 8549. उक्तानां धर्मादीनां द्रव्याणां लोकाकाशेऽवगाहो न बहिरित्यर्थः । यदि धर्मादीनां लोकाकाशमाधारः, आकाशस्य क आधार इति ? आकाशस्य नास्त्यन्य आधारः। स्वप्रतिष्ठ काशम् । यद्याकाशं स्वप्रतिष्ठम्: धर्मादीन्यपि स्वप्रतिष्ठान्येव । अथ धर्मादीनामन्य आधारः कल्प्यते, आकाशस्याप्यन्य आधार कल्प्यः । तथा सत्यनवस्थाप्रसङ्ग इति चेत् ? नैष दोषः, नाकाशादन्यदधिकपरिमाणं द्रव्यमस्ति यत्राकाशं स्थितमित्युच्यते । सर्वतोऽनन्तं हि तत् । धर्मादीनां पुनरधिकरणमाकाशमित्युच्यते व्यवहारनयवशात् । एवम्भूतनयापेक्षया तु सर्वाणि द्रव्याणि स्वप्रतिष्ठान्येव । तथा चोक्तम्, “क्व भवानास्ते । आत्मनि'' इति । धर्मादीनि लोकाकाशान्न बहिः सन्तीत्येतावदत्राधाराधेयकल्पनासाध्यं फलम् । ननु च लोके पूर्वोत्तरकालभाविनामाधाराधेयभावो
8546. पूर्व सूत्रमें 'पुद्गलानाम्' यह सामान्य वचन कहा है। इससे परमाणुके भी प्रदेशों का प्रसंग प्राप्त होता है, अतः उसका निषेध करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
परमाणुके प्रदेश नहीं होते ॥1॥
8547. परमाणके प्रदेश नहीं हैं, यहाँ 'सन्ति' यह वाक्यका शेष है। शंका-परमाणके प्रदेश क्यों नहीं होते ? समाधान-क्योंकि वह स्वयं एक प्रदेशमात्र है। जिस प्रकार एक आकाश प्रदेशमें प्रदेश-भेद नहीं होनेसे वह अप्रदेशी माना गया है उसी प्रकार अणु स्वयं एक प्रदेशरूप है इसलिए उसमें प्रदेशभेद नहीं होता । दूसरे अणुसे अल्प परिमाण नहीं पाया जाता। ऐसी कोई अन्य वस्तु नहीं जो परमाणुसे छोटी हो जिससे इसके प्रदेश भेदको प्राप्त होवें।
8548. इस प्रकार निश्चित प्रदेशवाले इन धर्मादिक द्रव्योंके आधारका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते है
इन धर्मादिक द्रव्योंका अवगाह लोकाकाशमें है ॥12॥
6549. उक्त धर्मादिक द्रव्योंका लोकाकाशमें अवगाह है बाहर नहीं, यह इस सूत्रका तात्पर्य है। शंका-यदि धर्मादिक द्रव्योंका लोकाकाश आधार है तो आकाशका क्या आधार है ? समाधान-आकाशका अन्य आधार नहीं है, क्योंकि आकाश स्वप्रतिष्ठ है।
का--यदि आकाश स्वप्रतिष्ठ है तो धर्मादिक द्रव्य भी स्वप्रतिष्ठ ही होने चाहिए। यदि धर्मादिक द्रव्योंका अन्य आधार माना जाता है तो आकाशका भी अन्य आधार मानना चाहिए। और ऐसा मानने पर अनवस्था दोष प्राप्त होता है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आकाशसे अधिक परिमाणवाला अन्य द्रव्य नहीं है जहाँ आकाश स्थित है यह कहा जाय। वह सब ओर से अनन्त है। परन्तु धर्मादिक द्रव्योंका आकाश अधिकरण है यह व्यवहारनयकी अपेक्षा कहा जाता है । एवंभूत नयकी अपेक्षा तो सब द्रव्य स्वप्रतिष्ठ ही हैं । कहा भी है-आप कहाँ रहते हैं ? अपनेमें। धर्मादिक द्रव्य लोकाकाशके बाहर नहीं हैं, यहाँ आधार-आधेय कल्पनासे1. तत् । ततो धर्मा- ता., ना. मु. ।
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