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पंचमोऽध्यायः भेदाभेदोपपत्तेस्तव्यपदेशसिद्धिः । व्यतिरेकेणानुपलब्धेरभेवः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदाद् भेद इति । प्रकृता धर्मादयो बहवस्तत्सामानाधिकरण्याद् बहुत्वनिर्देशः । स्यादेतत्संख्यानुवृत्तिवत्पुंल्लिगानुबत्तिरपि प्राप्नोति ? नैष दोषः; आविष्टलिङ्गाः शब्दा न कदाचिल्लिङ्ग व्यभिचरन्ति । अतो धर्मादयो द्रव्याणि भवन्तीति । 8530. अनन्तरत्वाच्चतुर्णामेव द्रव्यव्यपदेशप्रसंगेऽध्यारोपणार्थमिदमुच्यते
जीवाश्च ॥3॥ 8531. 'जीव'शब्दो व्याख्यातार्थः । बहुत्वनिर्देशो व्याख्यातभेदप्रतिपत्त्यर्थः । 'च"शब्दः द्रव्यसंज्ञानुकर्षणार्थः जीवाश्च द्रव्याणीति । एवमेतानि वक्ष्यमाणेन कालेन सह षड् द्रव्याणि भवन्ति । ननु द्रव्यस्य लक्षणं वक्ष्यते 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इति । तल्लक्षणयोगाद्धर्मादीनां द्रव्य - व्यपदेशो भवति, नार्थः परिगणनेन ? परिगणनमवधारणार्थम् । तेनाम्यवादिपरिकल्पितानां पथिव्या दीनां निवत्तिः कृता भवति । कयम् ? पृथिव्यप्तेजोवायुमनांसि पुद्गलद्रव्येऽन्तर्भवन्ति; रूपरसगन्धस्पर्शवत्वात् । वायुमनसो रूपादियोगाभाव इति चेत् ? न; वायुस्तावद्रूपाविमान स्पर्शवत्वाघटादिवत् । चक्षुरादिकरणग्राह्यत्वाभावाद्रूपाद्यभाव इति चेत् ? न; परमाण्वादिजाते, इसलिए तो इनमें अभेद है । तथा संज्ञा, लक्षण और प्रयोजन आदिकी अपेक्षा भेद होनेसे इनमें भेद है। प्रकृत धर्मादिक द्रव्य बहत हैं, इसलिए उनके साथ समानाधिकरण करनेके अभिप्रायसे 'द्रव्याणि' इस प्रकार बहवचनरूप निर्देश किया है। शंका-जिस प्रकार यहाँ संख्याकी अनुवृत्ति प्राप्त हुई है उसा प्रकार पुल्लिगको भी अनुवृत्ति प्राप्त होती है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि जिस शब्दका जा लिंग है वह कभो भो अपने लिंगका त्याग करके अन्य लिंगके द्वारा व्यवहृत नहीं होता, इसलिए 'धर्मादया द्रव्याणि भवन्ति' ऐसा सम्बन्ध यहाँ करना चाहिए।
8530. अव्यवहित होनेके कारण धर्मादिक चारको ही द्रव्य संज्ञा प्राप्त हुई, अतः अन्यका अध्यारोप करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
जीव भी द्रव्य हैं ॥3॥
5 531. जीव शब्दका व्याख्यान कर आये । सूत्रमें जो बहुवचन दिया है वह जीव द्रव्यके कहे गये भेदोंके दिखलानेके लिए दिया है। 'च' शब्द द्रव्य संज्ञाके खींचने के लिए दिया है जिससे 'जीव भी द्रव्य हैं' यह अर्थ फलित हो जाता है । इस प्रकार ये पाँच आगे कहे जानेवाले कालके साथ छह द्रव्य होते हैं। शंका--आगे 'गुणपर्ययवद द्रव्यम' इस सत्र-द्वारा द्रव्यका लक्षण कहेंगे; अतः लक्षणके सम्बन्धसे धर्मादिकको 'द्रव्य' संज्ञा प्राप्त हो जाती है फिर यहाँ उनकी अलगसे गिनतो करनेका कोई कारण नहीं ? समाधान-गिनतो निश्चय करने के लिए की है। इससे अन्यवादियों के द्वारा माने गये प्रथिवो आदि द्रव्यांका निराकरण हो जाता है। शंकाकैसे ? समाधान-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और मन इनका पुद्गल द्रव्यमें अन्तर्भाव हो जाता है; क्योंकि ये रूप, रस, गन्ध और स्पर्श वाले होते हैं । शंका-बायु और मनमें रूपादिक नहीं हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि वायु रूपादिवाला है, स्पर्शवाला होनेसे, घटके समान । इस अनूमानके द्वारा वायुमें रूपादिकका सिद्धि होतो है । शंका-चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा वायुका ग्रहण नहीं होता, इसलिए उसमें रूपादिकका अभाव है ? समाधान नहीं; क्योंकि इस प्रकार 1.-चरन्ति, अनन्तरत्वात् ता., ना. । 2. च शब्दः संज्ञा--- मु.। 3. व्यत्वव्यप-~मु.। 4. 'पृथिव्याप स्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा भन इति व्याणि ।'-वै. सू. 1-1,5। 5. - त्त्वाच्चक्षुरिन्दूियवत् । वायु- मु., ता., ना.।
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