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अथ पञ्चमोऽध्यायः 8526. इदानी सम्पग्दर्शनस्य विषयभावेनोपक्षिप्तेष जीवादिषु जीवपदार्थो ब्याख्यातः । अथाजीवपदार्थो विचारप्राप्तस्य संज्ञाभेदसंकीर्तनार्थमिदमुच्यते-- .
अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥1॥ 8527. 'काय'शब्दः शरीरे व्युत्पादितः । इहोपचारादध्यारोप्यते । कुत उपचारः ? पथा शरीरं पुद्गलद्रव्यप्रचयात्मकं तथा धर्मादिष्वपि प्रदेशप्रचयापेक्षया काया इव काया इति । अजीवाश्च ते कायाश्च अजीवकायाः "विशेषणं विशेष्येणेति" वृत्तिः । ननु च नीलोत्पलादिषु व्यभिचारे सति विशेषणविशेष्ययोगः । इहापि व्यभिचारयोगोऽस्ति । अजीवशब्दोऽकाये कालेऽपि वर्तते, कायोऽपि जीवे । किमर्थः कायशब्दः ? प्रदेशबहुत्वज्ञापनार्थः । धर्मादीनां प्रदेशा बहव इति । ननु च 'असंख्येयाः प्रवेशा धर्माधर्मकजीवानाम्' इत्यनेनैव प्रदेशबहुत्वं ज्ञापितम् । 'सत्यमिदम् । परं किन्त्वस्मिन्विधौ सति तदवधारणं विज्ञायते, असंख्येयाः प्रदेशा न संख्येया नाप्यनन्ता इति । कालस्य प्रदेशप्रचयाभावज्ञापनाथं च इह 'काय'ग्रहणम् । कालो वक्ष्यते । तस्य प्रदेशप्रतिषेधार्थमिह
8526. सम्यग्दर्शनके विषयरूपसे जो जीवादि पदार्थ कहे हैं उनमें से जीव पदार्थका व्याख्यान किया। अब अजीव पदार्थका व्याख्यान विचार प्राप्त है अत: उसकी संज्ञा और भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये अजीवकाय हैं ॥1॥
8527. व्युत्पत्तिसे काय शब्दका अर्थ शरीर है तो भी इन द्रव्योमें उपचारसे उसका आरोप किया है। शंका–उपचारका क्या कारण है ? समाधान—जिस प्रकार शरीर पुद्गल द्रव्यके प्रचयरूप होता है उसी प्रकार धर्मादिक द्रव्य भी प्रदेशप्रचयकी अपेक्षा कायके समान होने से काय कहे गये हैं । अजीव और काय इनमें कर्मधारय समास है जो 'विशेषणं विशेष्येण' इस सूत्रसे हुआ है । शंका-नीलोत्पल इत्यादिमें नील और उत्पल इन दोनों का व्यभिचार देखा जाता है अत: वहाँ विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध किया गया है, किन्तु अजीवकायमें विशेषणविशेष्य सम्बन्ध करनेका क्या कारण है ? समाधान-अजीवकायका यहाँ भी व्यभिचार देखा जाता है क्योंकि अजीव शब्द कालमें भी रहता है जो कि काय नहीं है और काय शब्द जीवमें रहता है, अतः इस दोषके निवारण करनेके लिए यहाँ विशेषणविशेष्य सम्बन्ध किया है। शंका-काय शब्द किसलिए दिया है ? समाधान--प्रदेश बहत्वका ज्ञान करानेके लिए। धर्मादिक द्रव्योंके बढ़त प्रदेश हैं यह इससे जाना जाता है । शंका-आगे यह सूत्र आया है कि 'धर्म, अधर्म और एक जीवके असंख्यात प्रदेश हैं' इसीसे इनके बहुत प्रदेशोंका ज्ञान हो जाता है फिर यहाँ कायशब्दके देनेकी क्या आवश्यकता ? समाधान-यह ठीक है । तो भी इस कथनके होनेपर उस सूत्रसे प्रदेशोंके विषयमें यह निश्चय किया जाता है कि इन धर्मादिक द्रव्योंके प्रदेश असंख्यात हैं, न संख्यात हैं और न अनन्त । दूसरे काल द्रव्यमें प्रदेशोंका प्रचय नहीं है यह ज्ञान कराने के लिए इस सूत्रमें 'काय' पदका ग्रहण किया है। कालका आगे व्याख्यान करेंगे। उसके प्रदेशोंका निषेध करनेके लिए 1. जैनेन्द्र. 113148 । 2. सत्यं अस्मिन् ता, ना. । 3. कालप्रदेश- आ., दि. 1, दि. 2 ।
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