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[512 § 528
'काय' ग्रहणम् । यथाऽणोः प्रदेशमात्रत्वाद् द्वितीयादयोऽस्य प्रदेशा न सन्तीत्यप्रवेशोऽणुः, तथा कालपरमाणु रप्येक प्रदेशत्वादप्रदेश इति । तेषां धर्मादीनाम् 'अजीव' इति सामान्य संज्ञा जीवलक्षणाभावमुखेन प्रवृत्ता । 'धर्माधर्माकाशेपुद्गलाः' इति विशेषसंज्ञाः सामयिक्यः ।
8528. अत्राह, 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' इत्येवमादिषु द्रव्याण्युक्तानि कानि तानीत्युच्यते-
सर्वार्थसिद्धी
द्रव्यारि ||2||
8529. यथास्वं पर्यायेद्र्यन्ते द्रवन्ति वा तानि इति द्रव्याणि । द्रव्यत्वयोगाद् द्रव्यमिति चेत् ? न; उभयासिद्धेः । यथा दण्डदण्डिनोर्योगो भवति पृथसिद्धयोः, न च तथा द्रव्यद्रव्यत्वे पृथसिद्धे स्तः । यद्य पृथक् सिद्धयोरपि योगः स्यादाकाशकुसुमस्य प्रकृत' पुरुषस्य द्वितीयशिरसश्च योगः स्यादिति । अथ पृथक् सिद्धिरभ्युपगम्यते, द्रव्यत्वकल्पना निरर्थिका । गुणसमुदायो' द्रव्यमिति चेत् ? तत्रापि गुणानां समुदायस्य च भेदाभावे तद् व्यपदेशो नोपपद्यते । भेदाभ्युपगमे च पूर्वोक्त एव दोषः । ननु गुणान्द्रवन्ति' गुणैर्वा द्र्यन्त' इति विग्रहेऽपि स एव दोष इति चेत् ? न ; कथंचिद्यहाँ 'काय' शब्दका ग्रहण किया है। जिस प्रकार अणु एक प्रदेशरूप होनेके कारण उसके द्वितीय आदि प्रदेश नहीं होते इसलिए अणुको अप्रदेशी कहते हैं उसी प्रकार काल परमाणु भी एक प्रदेशरूप होनेके कारण अप्रदेशी है। धर्मादिक द्रव्योंमें जीवका लक्षण नहीं पाया जाता, इसलिए उनकी अजीव यह सामान्य संज्ञा है । तथा धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये उनकी विशेष संज्ञाएँ हैं जो कि यौगिक हैं ।
8528. 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' इत्यादि सूत्रोंमें द्रव्य कह आये हैं । वे कौन हैं यह बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
ये धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल द्रव्य हैं ॥2॥
8529 द्रव्य शब्दमें 'दु' धातु है जिसका अर्थ प्राप्त करना होता है । इससे द्रव्य शब्दका व्युत्पत्तिरूप अर्थ इस प्रकार हुआ कि जो यथायोग्य अपनी-अपनी पर्यायोंके द्वारा प्राप्त होते हैं या पर्यायों को प्राप्त होते हैं वे द्रव्य कहलाते हैं । शंका-द्रव्यत्व नामकी एक जाति है उसके सम्बन्धसे द्रव्य कहना ठीक है । समाधान नहीं, क्योंकि इस तरह दोनों की सिद्धि नहीं होती । जिस प्रकार दण्ड और दण्डी ये दोनों पृथक् सिद्ध हैं अतः उनका सम्बन्ध बन जाता है उस प्रकार द्रव्य और द्रव्यत्व ये अलग-अलग सिद्ध नहीं हैं। यदि अलग-अलग सिद्ध न होनेपर भी इनका सम्बन्ध माना जाता है तो आकाश-कुसुम का और प्रकृत पुरुषके दूसरे सिरका भी सम्बन्ध मानना पड़ेगा । यदि इनकी पृथक् सिद्धि स्वीकार करते हो तो द्रव्यत्वका अलगसे मानना निष्फल है । गुणोंके समुदायको द्रव्य कहते हैं यदि ऐसा मानते हो तो यहाँ भी गुणोंका और समुदायका भेद नहीं रहनेपर पूर्वोक्त संज्ञा नहीं बन सकती है । यदि भेद माना जाता है तो द्रव्यत्व के सम्बन्धसे द्रव्य होता है इसमें जो दोष दे आये हैं वही दोष यहाँ भी प्राप्त होता है । शंका - जो गुणोंको प्राप्त हों या गुणोंके द्वारा प्राप्त हों उन्हें द्रव्य कहते हैं, द्रव्यका इस प्रकार विग्रह करनेपर भी वही दोष प्राप्त होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि कथंचित् भेद और कथंचित् अभेदके बन जानेसे द्रव्य इस संज्ञाकी सिद्धि हो जाती है। गुण और द्रव्य ये एक दूसरेको छोड़कर नहीं पाये 1. योऽस्य न मु । 2. धर्मोऽधर्म आकाशं पुद्गलाः इति आ., दि. 1, दि. 21 3. प्रकृतपुरुषद्वितीयआ., दि. 1, दि.2, ता । प्रकृतिपुरुषस्य द्वितीय मु । 4 गुणसंद्रावो द्रव्य- आ., दि. 1 दि. 2, ता., ना. । 5. सद्द्रव्यव्यप मु । 6. दूवति आ., दि. 1, दि. 2 । 7. दूयते आ., दि. 1, दि. 2 1
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