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चतुर्थोऽध्यायः चत्वारिंशद्योजनोच्छाया । तस्या उरि केशान्तरमात्रे व्यवस्थितमजुविमानमिन्द्रकं सौधर्मस्य । सर्वमन्यल्लोकानुयोगाद्वेदितव्यम् । 'नवसु अवेयकेषु' इति नवशब्दस्य पृथग्वचनं किमर्थम् ? अन्यान्यपि नवविमानानि अनुदिशसंज्ञकानि सन्तीति ज्ञापनार्थम् । तेनानुदिशानां ग्रहणं बेदितव्यम् ।
6 480. एषामधिकृतानां वैमानिकानां परस्परतो विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः ॥20॥ 8481. स्वोपात्तस्यायुष उदयात्तस्मिन्भवे शरीरेण सहावस्थानं स्थितिः । शापानुग्रहशक्तिः प्रभावः । सुखमिन्द्रियार्थानुभवः । शरीरवसनाभरणादिदीप्तिः द्युतिः। लेश्या उक्ता। लेश्याया विशुद्धिलेश्याविशुद्धिः। इन्द्रियाणामवधेश्च विषय इन्द्रियावधिविषयः। तेभ्यस्तैर्वाऽधिका इति तसिः । उपर्युपरि प्रतिकल्पं प्रतिप्रस्तारं च वैमानिकाः स्थित्यादिभिरधिका इत्यर्थः ।
8482. यथा स्थित्यादिभिरुपर्युपर्यधिका एवं गत्यादिभिरपीत्यतिप्रसंगे तन्निवृत्त्यर्थमाहऋजविमान है जो सौधर्म कल्पका इन्द्रक विमान है। शेष सब लोकानुयोगसे जानना चाहिए। शंका---'नवसु ग्रे वेयकेषु' यहाँ 'नव' शब्दका कथन अलगसे क्यों किया है ? समाधान–अनुदिश नामके नौ विमान और हैं इस बातके बतलाने के लिए 'नव' शब्दका अलगसे कथन किया है। इससे भी अनुदिशोंका ग्रहण कर लेना चाहिए।
विशेषार्थ-यद्यपि पहले वैमानिक निकायके बारह भेद कर आये हैं और यहाँ सोलह भेद गिनाये हैं इसलिए यह शंका होती है कि इनमें से कोई एक कथन समीचीन होना चाहिए ? समाधान यह है कि कल्पोपपन्नोंके बारह इन्द्र होते हैं, इसलिए उनके भेद भी बारह ही हैं पर वे रहते हैं सोलह कल्पोंमें । यहाँ कल्पोंमें रहनेवाले देवोंके भेद नहीं गिनाये हैं। यहाँ तो उनके निवार स्थानोंकी परिगणना की गयी है,इसलिए दोनों कथनोंमें कोई विरोध नहीं है। शेष कथन सुगम है।
8480. अब इन अधिकार प्राप्त वैमानिकोंके परस्पर विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्याविशुद्धि इन्द्रियविषय और अवधिविषयको अपेक्षा ऊपर-ऊपरके देव अधिक हैं।
8481. अपने द्वारा प्राप्त हुई आयुके उदयसे उस भवमें शरीरके साथ रहना स्थिति कहलाती है। शाप और अनुग्रहरूप शक्तिको प्रभाव कहते हैं । इन्द्रियोंके विषयों के अनुभवन करनेको सुख कहते हैं। शरीर, वस्त्र और आभूषण आदिको कान्तिको द्यु ति कहते हैं । लेश्याका कथन कर आये हैं। लेश्याको विशुद्धि लेश्याविशुद्धि कहलाती है । इन्द्रिय और अवधिज्ञानका विषय इन्द्रियविषय और अवधिविषय कहलाता है। इनसे या इनकी अपेक्षा वे सब देव उत्तरोत्तर अधिक-अधिक हैं। तात्पर्य यह है कि ऊपर-ऊपर प्रत्येक कल्पमें और प्रत्येक प्रस्तारमें वैमानिक देव स्थिति आदिकी अपेक्षा अधिक-अधिक हैं।
8482. जिस प्रकार ये वैमानिक देव स्थिति आदिकी अपेक्षा ऊपर-ऊपर अधिक हैं उसी प्रकार गति आदिकी अपेक्षा भी प्राप्त हुए, अतः इसका निराकरण करनेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं
1. -वचनं अन्या- ता., ना.। 2. -मानानि सन्तीति आ., ता., ना.। 3. --तानां परस्प- आ. : +.म स्थानं आ., दि. 1, दि. 2। 5. 'अपादाने चाहीयरुहो:'- पा. 5, 4, 45 ।। --अपादानेऽ । -जैनेन्द्र 4, 2, 62 । 'आद्यादिभ्य उपसंख्यानम्'-- पा. 5, 4, 44 वाति । 'आद्यादिभ्यस्तसिः' .. 4, 2, 601 6. इति तस्मिन्नुप- मु.।
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