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सर्वार्थसिद्धी
[4127 § 494
देहस्य मनुष्यभवापेक्षया । द्वौ चरमौ देहौ येषां ते द्विचरमाः । विजयादिभ्यश्च्युता अप्रतिपतितसम्यक्त्वा मनुष्येषूत्पद्य संयममाराध्य पुनर्वजयादिषूत्पद्य ततश्च्युताः पुनर्मनुष्यभवमवाप्य सिद्धघन्तीति द्विचरमदेहत्वम् ।
494. आह, जीवस्यौदयिकेषु भावेषु तिर्यग्योनिगतिरौर्दायकीत्युक्तं पुनश्च स्थितौ 'तिर्यग्योनिजानां च' इति । तत्र न ज्ञायते के तिर्यग्योनयः । इत्यत्रोच्यतेपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥27॥
$ 495. औपपादिका उक्ता देवनारकाः । मनुष्याश्च निर्दिष्टाः प्राङ्मानुषोसरान्मनुष्याः ' इति । एभ्योऽन्ये संसारिणो जीवाः शेषास्ते' तिर्यग्योनयो वेदितव्याः । तेषां तिरश्चां देवादीनामिव क्षेत्रविभागः पुनर्देष्टव्यः ? सर्वलोकव्यापित्वात्तेषां क्षेत्रविभागो नोक्तः ।
8 496. आह, स्थितिरुक्ता नारकाणां मनुष्याणां तिरश्चां च । देवानां नोक्ता । तस्यां वक्तव्यायामादावुद्दिष्टानां भवनवासिनां स्थितिप्रतिपादनार्थमाह
सर्वार्थसिद्धिका भी ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि वे परम उत्कृष्ट हैं। उनका सर्वार्थसिद्धि यह सार्थक नाम है, इसलिए वे एक भवावतारी होते हैं । देहका चरमपना मनुष्य भवकी अपेक्षा लिया है। जिसके दो चरम भव होते हैं वे द्विचरम कहलाते हैं। जो विजयादिकसे च्युत होकर और सम्यक्त्वको न छोड़कर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं और संयमकी आराधना कर पुन: विजयादिक में उत्पन्न होकर और वहाँसे च्युत होकर मनुष्य भवको प्राप्त करके सिद्ध होते हैं । इस प्रकार यहाँ मनुष्य भवकी अपेक्षा द्विचरमपना है ।
विशेषार्थ --- कोई-कोई विजयादिकके देव मनुष्य होते हैं । अनन्तर सौधर्म और ईशान कल्पमें देव होते हैं । अनन्तर मनुष्य होते हैं । फिर विजयादिक में देव होते हैं और अन्त में वहाँसे च्युत होकर मनुष्य होते हैं । तब कहीं मोक्ष जाते हैं । इस प्रकार इस विधि से विचार करनेपर मनुष्य के तीन भव हो जाते हैं । इसलिए मनुष्य भवकी अपेक्षा द्विचरमपना नहीं घटित होता ? इसका समाधान यह है कि विजयादिकसे तो दो बार ही मनुष्य जन्म लेना पड़ता है, इसलिए पूर्वोक्त कथन बन जाता है। ऐसा जीव यद्यपि मध्य में एक बार अन्य कल्पमें हो आया है, पर सूत्रकारने यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की है । उनकी दृष्टि यही बतलानेकी रही है कि विजयाकिसे अधिक से अधिक कितनी बार मनुष्य होकर जीव मोक्ष जाता है ।
8 494. कहते हैं, जोनके औदयिक भावोंको बतलाते हुए तिर्यंचगति औदयिकी कही है । पुनः स्थितिका कथन करते समय 'तिर्यग्योनिजानां च ' यह सूत्र कहा है । पर यह न जान सके कि तिच कौन हैं इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
उपपाद जन्मवाले और मनुष्योंके सिवा शेष सब जीव तिर्यंचयोनिवाले हैं ॥27॥
8 49 5. औपपादिक देव और नारकी हैं यह पहले कह आये हैं । 'प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ' इसका व्याख्यान करते समय मनुष्योंका भी कथन कर आये हैं । इनसे अन्य जितने संसारी जीव हैं उनका यहाँ शेष पदके द्वारा ग्रहण किया है। वे सब तिर्यंच जानना चाहिए । शंका -- जिस प्रकार देवादिकका पृथक्-पृथक् क्षेत्र बतलाया है उसी प्रकार इनका क्षेत्र बतलाना चाहिए ? समाधान - तिर्यंच सब लोकमें रहते हैं, अतः उनका अलगसे क्षेत्र नहीं कहा।
8 496. नारकी, मनुष्य और तिर्यंचोंकी स्थिति पहले कही जा चुकी है । परन्तु अभी तक देवोंकी स्थिति नहीं कही है, अतः उसका कथन करते हुए सर्वप्रथम प्रारम्भ में कहे गये भवनवासियों की स्थितिका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
1. शेषास्तिर्य मु., दि. 2 1
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