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सर्वार्थसिद्धी
[4131 $ 5028502. ब्रह्मलोकादिष्वच्युतावसानेषु स्थितिविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु ॥31॥
8503. 'सप्त'ग्रहणं प्रकृतम् । तस्येह ज्यादिभिनिर्दिष्टरभिसंबन्धो वेदितव्यः । सप्त त्रिभिरधिकानि, सप्त सप्तभिरधिकानीत्यादिः। द्वयोर्द्वयोरभिसंबन्धो वेदितव्यः। 'तु'शब्दो विशेषपार्थः। कि विशिनष्टि ? 'अधिक'शब्दोऽनुवर्तमानश्चतुभिर भिसंबध्यते नोत्तराभ्यामित्ययमों विशिष्यते । तेनायमर्थो भवति-ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोर्दशसागरोपमाणि साधिकानि । लान्तवकापिष्ठयोश्चतुर्दशसागरोपमाणि साधिकानि । शुक्रमहाशुक्रयोः षोडशसागरोपमाणि साधिकानि। शतारसहस्रारयोरष्टादशसागरोपमाणि साधिकानि । आनतप्राणतयोवितिसागरोपमाणि । आरणाच्युतयोविंशतिसागरोपमाणि।
8504. तत ऊवं स्थितिविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाहप्रारणाच्युतावर्ध्वमेकेन नवसु वेयकेंषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥32॥
$ 505. 'अधिक ग्रहणमनुवर्तते। तेनेहाभिसंबन्धो वेदितव्यः । एकैकेनाधिकानोति ।
8502. अब ब्रह्मलोकसे लेकर अच्युत पर्यन्त कल्पोंमें स्थिति विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगलसे लेकर प्रत्येक युगलमें आरण-अच्युत तक क्रमसे साधिक तीनसे अधिक सात सागरोपम, साधिक सातसे अधिक सात सागरोपम, साधिक नौसे अधिक सात सागरोपम, साधिक ग्यारहसे अधिक सात सागरोपम, तेरहसे अधिक सात सागरोपम और पन्द्रहसे अधिक सात सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है ॥31॥
6503. यहाँ पिछले सूत्रसे 'सप्त' पदका ग्रहण प्रकृत है। उसका यहाँ तीन आदि निर्दिष्ट संख्याओं के साथ सम्बन्ध जानना चाहिए। यथा—तीन अधिक सात, सात सधिक सात आदि । तथा इनका क्रमसे दो दो कल्पोंके साथ सम्बन्ध जानना चाहिए। सूत्रमें 'तु' शब्द विशेषताके दिखलानेके लिए आया है। शंका-इससे क्या विशेषता मालूम पड़ती है ? समाधान-इससे यहाँ यह विशेषता मालूम पड़ती है कि अधिक शब्दकी अनुवृत्ति होकर उसका सम्बन्ध त्रि आदि चार शब्दोंसे ही होता है, अन्तके दो स्थितिविकल्पोंसे नहीं। इससे यहाँ यह अर्थ प्राप्त हो जाता है, ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्तरमें साधिक दस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है। लान्तव और कापिष्ठमें साधिक चौदहसागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । शुक्र और महाशुक्रमें साधिक सोलह सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । शतार और सहस्रारमें साधिक अठारह सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । आनत और प्राणतमें बीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है। तथा आरण और अच्युतमें बाईस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है।
8504. अब इसके आगेके विमानोंमें स्थितिविशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
आरण-अच्युतके ऊपर नौ प्रैवेयकमें-से प्रत्येकमें नौ अनुदिशमें, चार विजयादिकमें एकएक सागरोपम अधिक उत्कृष्ट स्थिति है। तथा सर्वार्थसिद्धि में पूरी तैंतीस सागरोपम स्थिति है॥32॥
8505. पूर्व सूत्रसे अधिक पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिए यहाँ इस प्रकार सम्बन्ध . 1. -तुभिरिह सम्ब- आ. 1, दि. 2 ।
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