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सर्वार्थसिद्धी
[4135 § 509
$ 509. परस्मिन्देशे परतः । वीप्सायां द्वित्वम् । 'पूर्व' शब्दस्यापि । 'अधिक' ग्रहणमनुवर्तते । तेनैवमभिसंबन्धः क्रियते - सौधर्मेशानयोद्वे सागरोपमे साधिके उक्ते, ते साधिके सानत्कुमारमाहेन्द्रयोर्जघन्या स्थितिः । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः परा स्थितिः सप्तसागरोपमाणि साधिकानि, तानि साधिकानि ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोजघन्या स्थितिरित्यादि ।
8510. नारकाणामुत्कृष्टा स्थितिरुक्ता । जथम्यां सूत्रेऽनुपात्तामप्रकृतामपि लघुनोपायेन प्रतिपादयितुमिच्छम्माह
नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥35॥
$ 511. 'च'शब्दः किमर्थः ? प्रकृतसमुच्चयार्थः । किं च प्रकृतम् ? 'परतः परतः पूर्वा पूर्वाStri' अपरा स्थितिरिति । तेनायमर्थो लभ्यते - रत्नप्रभावां नारकाणां परा स्थितिरेकं सागरोपमम् । सा शर्कराप्रभायां जघन्या । शर्कराप्रभायामुत्कृष्टा स्थितिस्त्रीणि सागरोपमाणि । सा वालुकाप्रभायां जघन्येत्यादि ।
8512. एवं द्वितीयादिषु जघन्या स्थितिरुक्ता । प्रथमायां का जघन्येति तत्प्रदर्शनार्थमाहदशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ॥36॥
513. अपरा स्थितिरित्यनुवर्तते । रत्नप्रभायां दशवर्षसहस्राणि अपरा स्थितिवें वित्तव्या ।
8509. यहाँ 'परतः ' पदका अर्थ 'पर स्थानमें' लिया गया है । तथा द्वित्व वीप्सा रूप अर्थमें आया है । इसी प्रकार 'पूर्व' शब्द को भी वीप्सा अर्थ में द्वित्व किया है। अधिक पदकी यहाँ अनुवृत्ति होती है । इसलिए इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए कि सौधर्म और ऐशान कल्प में जो साधक दो सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति कही है उसमें एक समय मिला देने पर वह सानत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में जघन्य स्थिति होती है । सानत्कुमार और माहेन्द्र में जो साधिक सात सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति कही है उसमें एक समय मिला देने पर वह ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में जघन्य स्थिति होती है इत्यादि ।
8510. नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति कह आये हैं पर सूत्र द्वारा अभी जघन्य स्थिति नहीं कही है । यद्यपि उसका प्रकरण नहीं है तो भी यहाँ उसका थोड़े में कथन हो सकता है इस इच्छासे आचार्यने आगेका सूत्र कहा है
दूसरी आदि भूमियों में नारकोंकी पूर्व-पूर्वकी उत्कृष्ट स्थिति ही अनन्तर- अनन्तरकी जघन्य स्थिति है ॥35॥
8511. शंका-सूत्र में 'च' शब्द किसलिए दिया है ? समाधान - प्रकृत विषयका समुच्चय करने के लिए 'च' शब्द दिया है। शंका-क्या प्रकृत है ? समाधान - परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा अपरा स्थितिः' यह प्रकृत है अतः 'च' शब्द से इसका समुच्चय हो जाता है। इससे यह अर्थ प्राप्त होता है कि रत्नप्रभामें नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति जो एक सागरोपम है वह शर्कराप्रभा में जघन्य स्थिति है । शर्कराप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति जो तीन सागरोपम है वह वालुका प्रभा में जघन्य स्थिति है इत्यादि ।
8512. इस प्रकार द्वितीयादि नरकों में जघन्य स्थिति कही । प्रथम नरकमें जघन्य स्थिति कितनी है अब यह बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
प्रथम भूमिमें दस हजार वर्ष जघन्य स्थिति है ॥36॥
§ 513. इस सूत्रमें 'अपरा स्थिति:' इस पदकी अनुवृत्ति होती है । तात्पर्य यह है कि रत्नप्रभा पृथिवीमें दस हजार वर्ष जघन्य स्थिति है ।
1. तानि ब्रह्म- मु. ता. । 2. र्तते । अथ भवन- आ. fa. 1, fa. 2 1
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