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-4134 § 508]
चतुर्थोऽध्यायः
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'नव' ग्रहणं किमर्थम् ? प्रत्येकमेकैकमधिकमिति ज्ञापनार्थम् । इतरथा हि ग्रैवेयकेष्वेकमेवाधिक स्यात् । विजयादिष्विति 'आदि' शब्दस्य प्रकारार्थत्वादनुदिशानामपि ग्रहणम् । सर्वार्थसिद्धेस्तु पृथग्ग्रहणं जघन्याभावप्रतिपादनार्थम् । तेनायमर्थः, अधोग्रैवेयकेषु प्रथमे त्रयोविंशतिः, द्वितीये चतुविशतिः, तृतीये पञ्चविंशतिः । मध्यमग्रैवेयकेषु प्रथमे षडविंशतिः द्वितीये सप्तविंशतिः तृतीयेऽष्टाविंशतिः । उपरिमग्रैवेधकेषु प्रथमे एकोनत्रिशद् द्वितीये त्रिंशत् तृतीये एकत्रिशत् । अनुविशविमानेषु द्वात्रिंशत् । विजयादिषु त्रयस्त्रशत्सागरोपमा प्युत्कृष्टा स्थितिः । सर्वार्थसिद्धौ' त्रयस्त्रशदेवेति ।
S506. निर्दिष्टोत्कृष्ट स्थितिकेषु देवेषु जघन्यस्थितिप्रतिपादनार्थमाहअपरा पत्योपममधिकम् ॥33॥
8507. पल्योपमं व्याख्यातम् । अपरा जघन्या स्थितिः । पल्योपमं साधिकम् । केषाम् ? सौधर्मज्ञानीयानाम् । कथं गम्यते ? 'परतः परतः' इत्युत्तरत्र वक्ष्यमाणत्वात् ।
$ 508. तत ऊर्ध्वं जघन्य स्थितिप्रतिपादनार्थमाह
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परतः परतः पूर्वापूर्वाऽनन्तरा ॥34॥
करना चाहिए कि एक-एक सागरोपम अधिक है। शंका सूत्रमें 'नव' पदका ग्रहण किसलिए किया ? समाधान - प्रत्येक ग्रैवेयक में एक-एक सागरोपम अधिक उत्कृष्ट स्थिति है इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'नव' पदका अलगसे ग्रहण किया है। यदि ऐसा न करते तो सब ग्रैवेयकों में एक सागरोपम अधिक स्थिति ही प्राप्त होती । 'विजयादिषु' में आदि शब्द प्रकारवाची है जिससे अनुदिशोंका ग्रहण हो जाता है । सर्वार्थसिद्धिमें जघन्य आयु नहीं है यह बतलानेके लिए 'सर्वार्थसिद्धि' पदका अलग से ग्रहण किया है। इससे यह अर्थ प्राप्त हुआ कि अधोग्रं वेयक में से प्रथममें तेईस सागरोपम, दूसरेमें चौबीस सागरोपम और तीसरेमें पच्चीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । मध्यम ग्रैवेयक में से प्रथममें छब्बीस सागरोपम, दूसरे में सत्ताईस सागरोपम और तीसरेमें अट्ठाईस सागरोम उत्कृष्ट स्थिति है । उपरिम ग्रंवेयक में से पहले में उनतीस सागरोपम, दूसरे में तीस सागरोपम और तीसरेमें इकतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है। अनुदिश विमानोंमें बत्तीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । विजयादिकमें तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है और सर्वार्थसिद्धिमें तेतीस सागरोपम ही स्थिति है । यहाँ उत्कृष्ट और जघन्यका भेद नहीं है ।
§ 506. जिनमें उत्कृष्ट स्थिति कह आये हैं उनमें जघन्य स्थिति का कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
सौधर्म और ऐशान कल्पमें जघन्य स्थिति साधिक एक पल्योपन है || 33
§ 507. पल्योपमका व्याख्यान कर आये । यहाँ 'अपरा' पदसे जघन्य स्थिति ली गयी है जो साधिक एक पल्योपम है । शंका- यह जघन्य स्थिति किनकी है ? समाधान - सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंकी। शंका-कैसे जाना जाता है ? समाधान- जो पूर्व-पूर्व देवों की उत्कृष्ट स्थिति है वह अगले अगले देवों की जघन्य स्थिति है यह आगे कहनेवाले हैं इससे जाना जाता है कि यह सौधर्म और ऐशान कल्पके देवों की जघन्य स्थिति है ।
8508. अब सौधर्म और ऐशान कल्पसे आगेके देवोंकी जघन्य स्थितिका प्रतिपादन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
आगे-आगे पूर्व-पूर्वको उत्कृष्ट स्थिति अनन्तर - अनन्तरकी जघन्य स्थिति है ॥34॥
1. जजन्यस्थिति: मु.। 2 जवन्यस्थिति: मु. 1
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