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सर्वार्थसिद्धी
[4115 $ 4708 470. इतरत्र ज्योतिषामवस्थानप्रतिपादनार्थमाह
बहिरवस्थिताः ॥15॥ 6 471. 'बहिः' इत्युच्यते । कुतो बहिः ? नृलोकात् । कथमवगम्यते ? अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामो भवति । नन च नलोके नित्यगति'वचनादन्यत्रावस्थानं ज्योतिष्काणां सिद्धम । बहिरवस्थिता इति वचनमनर्थकमिति । तन्न; किं कारणम् ? नलोकादन्यत्र हि ज्योतिषामस्तिस्वमवस्थानं चासिद्धम् । अतस्तदुभयसिद्ध्यर्थं बहिरवस्थिता इत्युच्यते। विपरीतगतिनिवृत्त्यर्थं कादाचित्कगतिनिवृत्त्यर्थं च सूत्रमारब्धम् ।। 8 472. तुरीयस्य निकायस्य सामान्यसंज्ञासंकीर्तनार्थमाह---
वैमानिकाः ॥16॥ 8473. 'वैमानिक' ग्रहणमधिकारार्थम् । इत उत्तरं ये वक्ष्यन्ते तेषां वैमानिकसंप्रत्ययो स्था स्यादिति अधिकारः क्रियते । विशेषेणात्मस्थान सुकृतिनो मानयन्तीति विमानानि । विमानेषु
वा वैमानिकाः। तानि विमानानि त्रिविधानि–इन्द्रकश्रेणीपुष्पप्रकीर्णकभेदेन । तत्र इन्द्रकविमानानि इन्द्रवन्मध्येऽवस्थितानि । तेषां चतसृषु दिक्षु आकाशप्रदेशश्रेणिवदवस्थानात् श्रेणिमुख पूर्व दिशाकी ओर रहता है । तथा गजाकार देवोंका मुख दक्षिण दिशाकी ओर, वृषभाकार देवोंका मुख पश्चिमकी ओर, और अश्वाकार देवोंका मुख उत्तर दिशाकी ओर रहता है।
8470. अव ढाई द्वीपके बारह ज्योतिषियोंके अवस्थानका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
मनुष्य-लोकके बाहर ज्योतिषी देव स्थिर रहते हैं ।।15।।
8471. सूत्रमें 'वहिः' पद दिया है । शंका-किससे बाहर ? समाधान-मनुष्य-लोकसे बाहर । शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान पिछले सूत्र में 'नृलोके' पद आया है। अर्थ के अनुसार उसकी विभक्ति बदल जाती है, जिससे यह जाना जाता है कि यहाँ 'वहिः' पदसे मनुष्यलोकके बाहर यह अर्थ इष्ट है। शंका –मनुष्य-लोक में ज्योतिषी निरन्तर गमन करते हैं यह पिछले सूत्रमें कहा ही है, अत: अन्यत्र ज्योतिषियोंका अवस्थान सूतरां सिद्ध है। इसलिए 'बहिरवस्थिताः' यह सूत्रवचन निरर्थक है ? समाधान-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि मनुष्यलोकके बाहर ज्योतिषियोंका अस्तित्व और अवस्थान ये दोनों असिद्ध है। अतः इन दोनों की सिद्धिके लिए 'बहिरवस्थिताः' यह सूत्रवचन कहा है। दूसरे विपरीत गतिके निराकरण करनेके लिए और कादाचित्क गतिके निराकरण करनेके लिए यह सूत्र रचा है। अतः यह सूत्रचन अनर्थक नहीं है।
6472. अब चौथे निकायकी सामान्य संज्ञाके कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
चौथे निकायके देव वैमानिक हैं।16।।
6473. वैमानिकोंका अधिकार है यह बतलानेके लिए 'वैमानिक' पदका ग्रहण किया है। आगे जिनका कशन करनेवाले हैं वे वैमानिक हैं। इनका ज्ञान जैसे हो इसके लिए यह अधिकार वचन है। जो विशेषत: अपने में रहनेवाले जीवोंको पृण्यात्मा मानते हैं वे विमान हैं और जो उन विमानोंमें होते हैं वे पैमानिक हैं । इन्द्रक, श्रेणिबद्ध और पुष्पप्रकीर्णकके भदसे विमान अनेक प्रकारके हैं। उनमें-से इन्द्रक विमान इन्द्रके समान मध्यमें स्थित हैं । उनके नारों और 1.-न्यत्र बहिर्यो- मु.। 2. -नानि विविधा- मु.। 3. मध्ये व्यव- मु. ।
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