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126] सर्वाथसिदौ
[21158289$ 289. 'आदि'शब्देन निर्दिष्टानामनितिसंख्यानामियत्तावधारणं कर्तव्यमित्यत आह
पंचेन्द्रियाणि ॥15॥ 8290: 'इन्द्रिय'शब्दो व्याख्यातार्थः । 'पञ्च'ग्रहणमवधारणार्थम्, पंचव नाधिकसंख्यानीति । कर्मेन्द्रियाणां धागादीनामिह ग्रहणं कर्तव्यम् ? न कर्तव्यम्; उपयोगप्रकरणात् । उपयोगसाधनानामिह ग्रहणं, न क्रियासाधनानाम् ; अनवस्थानाच्च । क्रियासाधनानामङ्गोपाङ्गनामकर्मनिवतितानां सर्वेषामपि क्रियासाघनत्वमस्तीतिन पंचव कर्मेन्द्रियाणि । ६ 291. तेषामन्तर्भेदप्रदर्शनार्थमाह
द्विविधानि॥16॥ 8 292. "विध'शब्दः प्रकारवाची। दो विधौ येषां तानि द्विविधानि, द्विप्रकाराणीत्यर्थः।
विशेषार्थ----यहाँ द्वीन्द्रियके छह, ब्रीन्द्रियके सात, चतुरिन्द्रियके आठ, असंज्ञी पंचेन्द्रियके नौ और संज्ञीके दस प्राण पर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा बतलाये हैं। अपर्याप्त अवस्थामें इनके क्रमसे चार, पाँच, छह और सात प्राण होते हैं । खुलासा इस प्रकार है-कुल प्राण दस हैं----पाँच इन्द्रियप्राण; तीन बलप्राण, आयु और श्वासोच्छ्वास। इनमें-से संज्ञी और असंज्ञीके अपर्याप्त), अवस्थामें श्वासोच्छ्वास, मनोबल और वचनबल ये तीन प्राण नहीं होते, शेष सात प्राण होते हैं। चतुरिन्द्रियके अप्ति अवस्थामें तीन ये और श्रोत्रेन्द्रिय ये चार प्राण नहीं होते, शेष छह,
होते हैं। त्रीन्द्रियके अपर्याप्त अवस्थामें चार ये और चक्षरिन्द्रिय ये पाँच प्राण नहीं होते. शेष पाँच प्राण होते हैं और द्वीन्द्रियके अपर्याप्त अवस्थामें पाँच ये और घ्राणेन्द्रिय ये छह प्राण नहीं होते, शेष चार प्राण होते हैं तथा एकेन्द्रियके छह ये तथा श्वासोच्छवास ये सात प्राण नहीं होते, शेष तीन प्राण होते हैं।
8289. पूर्व सूत्र में जो आदि शब्द दिया है उससे इन्द्रियोंकी संख्या नहीं ज्ञात होती, अतः उनके परिमाणका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
इन्द्रियाँ पाँच हैं ॥15॥
8290. इन्द्रिय शब्दका व्याख्यान कर आये। सत्र में जो 'पंच' पदका ग्रहण किया है वह मर्यादाके निश्चित करनेके लिए किया है कि इन्द्रियाँ पाँच ही होती हैं। इससे इन्द्रियोंकी और अधिक संख्या नहीं पायी जाती। शंका----इस सूत्रमें वचनादिक कर्मेन्द्रियोंका ग्रहण करना चाहिए ? समाधान----नहीं करना चाहिए, क्योंकि उपयोगका प्रकरण है। इस सूत्रमें उपयोगकी साधनभूत इन्द्रियोंका ग्रहण किया है, क्रियाकी साधनभूत इन्द्रियोंका नहीं। दूसरे, क्रिया की साधनभूत इन्द्रियोंकी मर्यादा नहीं है। अंगोपांग नामकर्मके उदयसे जितने भी अंगोपांगोंकी रचना होती हैं वे सब क्रियाके साधन हैं, इसलिए कर्मेन्द्रियाँ पाँच ही हैं ऐसा कोई नियम नहीं किया जा सकता।
8291. अब उन पाँचों इन्द्रियोंके अन्तर्भेदोंको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं--- वे प्रत्येक दो-दो प्रकार की हैं॥16॥
$ 292. विध शब्द प्रकारवाची है । 'द्विविधानि' पदमें 'द्वौ विधौ येषां तानि द्विविधानि' इस प्रकार बहुव्रीहि समास है। आशय यह है कि ये पाँचों इन्द्रियाँ प्रत्येक दो-दो प्रकारकी हैं। 1. 'वाक्पाणिपादपायूपस्थानि कर्मेन्द्रियाण्याहः।---सां. को. इलो. 26। 2. ग्रहणं कृतं न क्रिया--मु., ता., ना.। 3. 'कतिविहाणं भंते इंदिया पण्णत्ता । गोयमा, दुविहा पण्णत्ता । तं जहा–दव्विंदिया य भाविदिया य -पण्णवणा पद 151
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