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-3137 8 437] तृतीयोऽध्यायः
[173 $ 436. काः पुनः कर्मभूमय इत्यत आह
भरवैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूचरकुरुभ्यः ॥37॥ 8437. भरता ऐरावता विदेहाश्च पंच, पंच, एताः कर्मभूमय हात व्यपविश्यन्ते । तत्र 'विदेह'ग्रहणाद्देवकुरुत्तरकुरुग्रहणे प्रसक्ते तत्प्रतिषेधार्थमाह-'अन्यत्र देवकुरुत्तरकुरुभ्यः' इति । 'अन्यत्र' शब्दो वजनार्थः । देवकुरव उत्तरकुरवो हैमवतो हरिव! रम्यको हैरण्यवतोऽन्तर्वीपाश्च भोगभूमय इति व्यपदिश्यन्ते। अथ कथं कर्मभूमित्वम् ? शुभाशुभलक्षणस्य कर्मणोऽधिष्ठानत्वात् । ननु सर्व लोकत्रितयं कर्मणोऽधिष्ठानमेव । तत एवं प्रकर्षगतिविज्ञास्यते, प्रकर्षण यत्कर्मणोऽधिष्ठानमिति । तत्राशुभकर्मणस्तावत्सप्तमनरकप्रापणस्य भरताविष्वेवार्जनम्, शुभस्य च सर्वार्थसिद्धयादि स्थानविशेषप्रापणस्य' कर्मण उपार्जनं तत्रैव, कृष्यादिलक्षणस्य षविषय कर्मणः पात्रदानाविसहितस्य तत्रैवारम्भात्कर्मभूमिव्यपदेशो वेवितव्यः । इतरास्तु दशविधकल्पवृक्षकस्पितभोगानुभवनविषयत्वाद् भोगभूमय इति व्यपदिश्यन्ते । विभक्त है-कर्मभूमिज आर्य और अकर्मभूमिज आर्य । तीस भोगभूमियोंके मनुष्य अकर्मभूमिज आर्य हैं और कर्मभूमिके आर्य कर्मभूमिज आर्य हैं। इनमे से अकर्मभूमिज आर्य और म्लेच्छोंके अविरत सम्यग्दष्टि तक चार गुणस्थान हो सकते हैं किन्तु कर्मभूमिज आर्य और म्लेच्छ अणुव्रत और महाघ्रतके भी अधिकारी हैं। इनके सयमासंयम और संयमस्थानोंका विशेष व्याख्यान कषायप्राभृत लब्धिसार क्षपणासारमें किया है।
8436. कर्मभूमियाँ कौन-कौन हैं, अब इस बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंदेवकुरु और उत्तरकुरुके सिवा भरत, ऐरावत और विदेह ये सब कर्मभूमियाँ हैं ।।37॥
8437. भरत, ऐरावत और विदेह ये प्रत्येक पाँच-पाँच है। ये सब कर्मभूमियाँ कही जाती हैं। इनमें विदेहका ग्रहण किया है, इसलिए देवकुरु और उत्तरकुरुका भी ग्रहण प्राप्त होता . है, अतः उनका निषेध करनेके लिए 'अन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः' यह पद रखा है। अन्यत्र शब्दका अर्थ निषेध है । देवकुरु, उत्तरकुरु, हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक, हैरण्यवत और अन्तर्वीप ये भोगभूमियाँ कही जाती हैं । शंका-कर्मभूमि यह संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? समाधान-जो शुभ और अशभ कर्मोंका आश्रय हो उसे कर्मभूमि कहते हैं । यद्यपि तीनों लोक कर्मका आश्रय हैं, फिर भी इससे उत्कृष्टताका ज्ञान होता है कि ये प्रकर्ष रूपसे कर्मका आश्रय हैं। सातवें नरकको प्राप्त करनेवाले अशुभ कर्मका भरतादि क्षेत्रोंमें ही अर्जन किया जाता है। इसो प्रकार सर्वार्थसिद्धि आदि स्थान विशेषको प्राप्त करानेवाले पुण्य कर्मका उपार्जन भी यहीं पर होता है । तथा पात्रदान आदिके साथ कृषि आदि छह प्रकारके कर्मका आरम्भ यहीं पर होता है, इसलिए भरतादिककी कर्मभूमि संज्ञा जाननी चाहिए। इतर क्षेत्रोंमें दस प्रकारके कल्पवृक्षोंसे प्राप्त भोगोंकी मुख्यता है, इसलिए वे भोगभूमियाँ कहलाती हैं।
विशेषार्थ-यह पहले ही बतला आये हैं कि भरतादि क्षेत्रोंका विभाग ढाई द्वीपमें ही है। जम्बूद्वीपमें भरतादि क्षेत्र एक-एक हैं और धातकोखण्ड व पुष्करार्धमें ये दो-दो हैं। इस प्रकार कुल क्षेत्र 35 होते हैं । उसमें भी उत्तरकुरु और देवकुरु विदेह क्षेत्रमें होकर भी अलग गिने जाते हैं, क्योंकि यहाँ उत्तम भोगभूमिकी व्यवस्था है, इसलिए पाँच विदेहोंके पाँच देवकुरु और पाँच उत्तरकुरु इनको उक्त 35 क्षेत्रोंमें मिलानेपर कुल 45 क्षेत्र होते हैं । इनमें से 5 भरत, 1. भरतरावतविदेहाश्च मु., ता., ना.। 2. हरिवंशः रम्य-आ., दि. 1, दि. 21 3, सर्वो लोकत्रितयः कर्मआ., दि. 1, दि. 21 4. एक प्रक- मु.। 5, शुभस्य सर्वा- मु.। 6 -ध्यादिषु स्थान- आ., दि. 1, दि. 21 7. पणस्य पुण्यकर्म- मु.।
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