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-~3:398441j तृतीयोऽध्यायः
[175 रोमच्छेबास्तावन्तो द्वीपसमुद्राः। पुनरुद्धारपल्यरोमच्छेदैवर्षशतसमयमात्रच्छिन्नैः पूर्णमद्धापल्यम् । ततः समये समये एककस्मिन् रोमच्छेदेऽपकृष्यमाणे यावता कालेन तद्रिक्तं भवति तावान्कालोऽबापल्योपमाल्यः । एषामद्धापल्यानां दशकोटीकोटय एकमद्धासागरोपमम् । दशाद्धासागरोपमकोटीकोठच एकावसपिणी । तावत्येवोत्सपिणी । अनेनाद्धापल्येन नारकतैर्यग्योनिजानां देवमनुष्याणां च कर्मस्थिति वस्थितिरायुःस्थितिः कायस्थितिश्च परिच्छेत्तव्या । उक्ता च संग्रहगाथा
ववहारुद्धारद्धा पल्ला तिण्णेव होंति बोद्धब्बा।
संखा दीव-समुद्दा कम्मट्ठिदि वण्णिदा तदिए॥" $ 440. यथैवैते उत्कृष्टजघन्ये स्थिती नृणां तथैव
__तिर्यग्योनिजानां च ॥39॥ 8441. तिरश्चां योनिस्तिर्यग्योनिः। तिर्यग्गतिनामकर्मोदयापादितं जन्मेत्यर्थः । तिर्यग्योनो जातास्तिर्यग्योनिजाः । तेषां तिर्यग्योनिजानामुत्कृष्टा भवस्थितिस्त्रिपल्योपमा। जघन्या अन्तर्मुहूर्ता। मध्येऽनेकविकल्पाः ।
इति तत्त्वार्थवृत्तो सर्वार्थसिद्धि संज्ञिकायां तृतीयोऽध्यायः ।।3।। पल्योंका एक उद्धार सागरोपम काल होता है। तथा ढाई उद्धार सागरके जितने रोमखण्ड हों उतने सब दीप और समुद्र हैं । अनन्तर सौ वर्षके जितने समय हों उतने उद्धारपल्यके रोमखण्डोंमें-से प्रत्येकके खण्ड करके और उनसे तीसरे गढ़ के भरनेपर एक अद्धापल्य होता है । और इनमें से प्रत्येक समयमें एक-एक रोमके निकालनेपर जितने समयमें वह गढ़ा खाली हो जाय उतने कालका नाम अद्धापल्योपम है। तथा ऐसे दस कोडाकोड़ी अद्धापल्योंका एक अद्धासागर होता है । दस कोडाकोड़ी अद्धासागरोंका एक अवसर्पिणी काल होता है और उत्सर्पिणी भी इतना ही बड़ा होता है।
___ इस अद्धापल्यके द्वारा नारकी, तिर्यंच, देव और मनुष्योंकी कर्मस्थिति, भवस्थिति, आयुस्थिति और कायस्थिति की गणना करनी चाहिए । संग्रह गाथा भी कही है
'व्यवहार, उद्धार और अद्धा ये तीन पल्य जानने चाहिए। संख्याका प्रयोजक व्यवहार पल्य है। दूसरेसे द्वीप-समुद्रोंकी गणना की जाती है और तीसरे अद्धापल्यमें कर्मोंकी स्थितिका लेखा लिया जाता है।'
8440. जिस प्रकार मनुष्योंकी यह उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति है उसी प्रकारतियंचों की स्थिति भी उतनी ही है ॥39।।
8441. तियंचोंकी योनिको तिर्यग्योनि कहते हैं। इसका अर्थ तिर्यंचगति नामकर्मके उदयसे प्राप्त हुआ जन्म है । जो तिर्यंचयोनिमें पैदा होते हैं वे तिर्यग्योनिज कहलाते हैं। इन तिर्यंचयोनिसे उत्पन्न जीवोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति तीन पल्योपम और जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त है। तथा बीचकी स्थितिके अनेक विकल्प हैं।
विशेषार्थ-स्थिति दो प्रकारको होती है-भवस्थिति और कायस्थिति । एक पर्यायमें रहने में जितना काल लगे वह भवस्थिति है। तथा विवक्षित पर्यायके सिवा अन्य पर्यायमें उत्पन्न न होकर पुनः पुनः उसी पर्यायमें निरन्तर उत्पन्न होनेसे जो स्थिति प्राप्त होती है वह कायस्थिति है। यहाँ मनुष्यों और तिर्यचोंकी भवस्थिति कही गयी है इनकी जघन्य कायस्थिति जघन्य 1. बवहारद्वारदा तियपल्ला पढयम्मि संसाओ । विदिए दोवसमुद्दा तदिए मिज्जेदि कम्मठिदी। ति. प. गा. 941 2.येते ते उत्कृ-आ.,दि. 1, दि. 2।
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