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चतुर्थोऽध्यायः राक्षसानां भीमो महाभीमश्च । भूतानां प्रतिरूपोऽप्रतिरूपश्च । पिशाचानां कालो महाकालश्च । 5454. अर्थषां देवानां सुखं कीदृशमित्युक्ते सुखावबोधनार्थमाह
कायप्रवीचारा पा ऐशानात् ॥7॥ 8455. प्रवीचारो मैथुनोपसेवनम् । कायेन प्रवीचारो येषां ते कायप्रवीचाराः। आङ् अभिविध्यर्थः । असंहितया निर्देशः असंदेहार्थः । एते भवनवास्यादय ऐशानान्ताः संक्लिष्टकर्मत्वान्मनुष्यवत्स्त्रीविषयसुखमनुभवन्तीत्यर्थः । 8456. अवधिग्रहणादितरेषां सुखविभागेऽनिर्माते तत्प्रतिपादनार्थमाह
शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनः प्रवीचाराः ॥8॥ 8457. उक्तावशिष्टग्रहणार्थ 'शेष' ग्रहणम। के पनरुक्तावशिष्टाः? कल्पवासिनः । स्पर्शश्च रूपं च शब्दश्च मनश्च स्पर्शरूपशब्दमनांसि, तेषु प्रवीचारो येषां ते स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः । कयभिसंबन्धः ? आर्षाविरोधेन । कुतः पुनः 'प्रवीचार' ग्रहणम् ? इष्टसंप्रत्ययार्थमिति । कः पुनरिष्टोऽभिसंबन्धः ? आर्षाविरोधी-सानत्कुमारमाहेन्द्रयोर्देवा देवाङ्गना स्पर्शमात्रादेव परां प्रीतिमुपलभन्ते, तथा देव्योऽपि । ब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठेषु देवा दिव्याङ्गनानां दो इन्द्र हैं। राक्षसोंके भीम और महाभीम ये दो इन्द्र हैं । भूतोंके प्रतिरूप और अप्रतिरूप ये दो इन्द्र है । तथा पिशाचोंके काल और महाकाल ये दो इन्द्र हैं।
8454. इन देवोंका सुख किस प्रकारका होता है ऐसा पूछने पर सुखका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
ऐशान तकके देव कायप्रवीचार अर्थात् शरीरसे विषय-सुख भोगनेवाले होते हैं ॥7॥
8455. मैथुनद्वारा उपसेवनको प्रवीचार कहते हैं । जिनका कायसे प्रवीचार है वे कायप्रवी चारवाले कहे जाते हैं । कहाँतक कायसे प्रवीचारकी व्याप्ति है इस बातके बतलानेक लिए सूत्रमें 'आङ्' का निर्देश किया है । सन्देह न हो इसलिए 'आ ऐशानात्' इस प्रकार सन्धिके विना निर्देश किया है । तात्पर्य यह है कि ऐशान स्वर्ग पर्यन्त ये भवनवासी आदि देव संक्लिष्ट कर्मवाले होनेके कारण मनुष्योक समान स्त्रीविषयक सुखका अनुभव करते हैं।
8456 पूर्वोक्त सत्र में कायसे प्रवीचारकी मर्यादा कर दी है इसलिए इतर देवोंके सुखका विभाग नहीं ज्ञात होता है, अतः इसके प्रतिपादन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं --
शेष देव स्पर्श, रूप, शब्द और मनसे विषय-सुख भोगनेवाले होते हैं ॥8॥
8457. पहले जिन देवोंका प्रवीचार कहा है उनसे अतिरिक्त देवोंके ग्रहण करने के लिए 'शेष' पदका ग्रहण किया है। शंका-उक्त देवोंसे अवशिष्ट और कौन देव हैं ? समाधानकल्पवासी । यहाँ स्पर्श, रूप, शब्द और मन इनका परस्पर द्वन्द्व समास करके अनन्तर प्रवीचार शब्दके साथ बहुटीहि समास किया है । शंका–इनमें से किन देवोंके कौन-सा प्रवीचार है इसका सम्बन्ध कैसे करना चाहिए ? समाधान--इसका सम्बन्ध जिस प्रकार आर्ष में विरोध न आवे उस प्रकार कर लेना चाहिए। शंका-पुनः 'प्रवीचार' शब्दका ग्रहण किसलिए किया है ? समाधान-इष्ट अर्थका ज्ञान कराने के लिए। शंका-जिसमें आर्षसे विरोध न आवे ऐसा वह इष्ट अर्थ क्या है ? समाधान--सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गके देव देवांगनाओंके स्पर्श मात्रसे परम प्रोतिको प्राप्त होते हैं और इसी प्रकार वहाँकी देवियाँ भी। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ स्वर्गके देव देवांगनाओंके शृगार, आकृति, विलास, चतुर और मनोज्ञ वेष तथा मनोज्ञ रूपके 1. 'आङ् मर्यादाभिविध्योः।' पा. 2, 1, 13 1 2. -नांगकास्पर्श: मु.।
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