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-- 414 $ 450] चतुर्थोऽध्यायः
[179 इति कल्याः । भवनवासिषु तत्कल्पनासंभवेऽपि रूढिवशाद्वैमानिकेष्वेव वर्तते कल्पशब्दः । कल्पेषपपन्ना कल्पोपपन्नाः। कल्पोपपन्नाः पर्यन्ता येषां ते कल्पोपपन्नपर्यन्ताः। $ 448. पुनरपि तद्विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाहइन्द्रसामानिकत्रास्त्रिशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णका
भियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः ॥4॥ 8449. अन्यदेवासाधारणाणिमादिगुणयोगादिन्दन्तीति इन्द्राः । आजैश्वर्यवजितं यत्स्थानायुर्वीर्यपरिवारभोगोपभोगादि तत्समानं, तस्मिन्समाने भवाः सामानिका महत्सराः पितगुरूपाध्यायतुल्याः। मन्त्रिपुरोहितस्थानीयास्त्रास्त्रिशाः। त्रस्त्रिशदेव त्रास्त्रिशाः । वयस्यपीठमदरादृशाः परिषदि भवाः पारिषदाः। आत्मरक्षाः शिरोरक्षोपमानाः । अर्थचरा रक्षकसमाना लोकपालाः । लोकं पालयन्तीति लोकपालाः । पदात्यादीनि सप्त अनीकानि दण्डस्थानीयानि । प्रकीर्णकाः पौरजानपदकल्पाः । आभियोग्या दाससमाना वाहनादिकर्मणि प्रवृत्ताः। अन्तेवासिस्थानीयाः किल्विषिकाः । किल्विषं पापं येषामस्तीति किल्विषिकाः।
$ 450. एकैकस्य निकायस्य एकश एते इन्द्रादयो दश विल्कपाश्चतुर्पु निकायेषूत्सर्गेण यह पद दिया है । शंका-कल्प इस संज्ञाका क्या कारण है ? समाधान-जिनमें इन्द्र आदि दस प्रकार कल्पे जाते हैं वे कल्प कहलाते हैं। इस प्रकार इन्द्रादिककी कल्पना ही कल्प संज्ञाका कारण है । यद्यपि इन्द्रादिक- की कल्पना भवनवासियों में भी सम्भव है फिर भी रूढ़िसे कल्प शब्द का व्यवहार वैमानिकोंमे ही किया जाता है । जो कल्पोंमें उत्पन्न होते हैं वे कल्पोपन्न कहलाते हैं। तथा जिनके अन्त में कल्पोपपन्न देव हैं उनको कल्पोपपन्नपर्यन्त कहा है।
8448. प्रकारान्तरसे उनके भेदोंका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उक्त दस आदि भेदों में से प्रत्येक इन्द्र, सामानिक, त्रास्त्रिश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकोणक, आभियोग्य और किल्विषिक रूप हैं ॥4॥
8449 जो अन्य देवोंमें असाधारण अणिमादि गुणोंके सम्बन्धसे शोभते हैं वे इन्द्र कहलाते हैं । आज्ञा और ऐश्वर्य के सिवा जो स्थान, आयु, वीर्य, परिवार, भोग और उपभोग आदि हैं वे सभान कहलाते हैं । उस समानमें जो होते हैं वे सामानिक कहलाते हैं। ये पिता, गुरु और उपाध्यायके समान सबसे बड़े है। जो मन्त्री और पुरोहित के समान हैं वे त्रायस्त्रिश हैं। ये ततास हा होते हैं इसलिए त्रास्त्रिश कहलाते हैं । जो सभा में मित्र और प्रेमीजनों के समान होते हैं वे पारिषद कहलाते हैं। जो अंगरक्षक के समान हैं वे आत्मरक्ष कहलाते हैं। जो रक्षकके समान अर्थचर है वे लोकपाल कहलते हैं । तात्पर्य यह है कि जो लोकका पालन करते हैं वे लोकपाल कहलाते हैं । जैसे यहाँ सेना है उसी प्रकार सात प्रकारके पदाति आदि अनीक कहलाते हैं । जो गाँव और शहरों में रहनेवालों के समान हैं उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं। जो दास के समान वाहन आदि कर्ममें प्रवृत्त होते हैं वे आभियोग कहलाते हैं । जो सीमाके पास रहने वालों के समान हैं वे किल्विषिक कहलाते हैं। किल्विष पापको कहते हैं इसकी जिनके बहुलता होती है वे किल्विषिक कहलाते हैं।
8450. चारों निकायों में से प्रत्येक निकायमें ये इन्द्रादिक दस भेद उत्सर्गसे प्राप्त हुए, 1. --यत्समानायु- मु.। 2. -वृत्ताः । अन्त्यवासि- आ., दि. 1, दि. 2 । 3. -स्थानीयाः । किल्विषं मु. । 4. -येषामस्ति ते किल्वि- मु. ।
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