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अथ चतुर्थोऽध्यायः
$ 442. 'भवप्रत्ययो ऽवधिर्देवनारकाणाम्' इत्येवमादिव्य सकृद्देवशब्द उक्तस्तत्र न शायते के देवाः कतिविधा इति' तन्निर्णयार्थमाह
देवाश्चतुरिकायाः || iu
8443. देवगतिनामकर्मोदये सत्यभ्यन्तरे हेतौ बाह्यविभूतिविशेषः द्वीपाव्रिसमुद्रादिप्रवेशेषु यथेष्टं दीव्यन्ति क्रीडन्तोति देवाः । इहैकवचननिर्देशो युक्तः 'देवश्चतुणिकायः' इति' । स 'जात्यभिधानाद् बहूनां प्रतिपादको भवति । बहुत्व निर्देशस्तवन्तर्गतभेवप्रतिपत्त्यर्थः । इन्द्रसामाfrerant बहवो भेदाः सन्ति स्थित्याविकृताश्च तत्सूचनार्थः । देवगतिनामकर्मोदयस्य / स्वकर्मविशेषापादितभेवस्य सामर्थ्यान्निचीयन्त इति निकायाः संधाता इत्यर्थः । चत्वारो निकाया येषां ते चतुणिकायाः । के पुनस्ते ? भवनवासिनो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाश्चेति ।
8 444 तेषां लेश्यावधारणार्थमुच्यते
प्रातिस्त्रिषु पीतान्तलेयाः ॥2॥
8 442. 'देव और नारकियोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है' इत्यादि सूत्रोंमें अनेक बार देव शब्द आया है । किन्तु वहाँ यह न जान सके कि देव कौन हैं और वे कितने प्रकारके हैं, अतः इसका निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
देव चार निकायवाले हैं ||1||
8443. अभ्यन्तर कारण देवगति नामकर्मका उदय होनेपर जो नाना प्रकारकी बाह्य विभूति से द्वीपसमुद्रादि अनेक स्थानोंमें इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं, वे देव कहलाते हैं । शंका'देवश्चतुर्णिकाय:' इस प्रकार एकवचनरूप निर्देश करना उचित था, क्योंकि जातिका कथन कर देनेसे बहुतका कथन हो ही जाता है। समाधान - देवोंके अन्तर्गत अनेक भेद हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए सूत्रमें बहुवचनका निर्देश किया है । तात्पर्य यह है कि देवोंके इन्द्र, सामानिक आदिकी अपेक्षा अनेक भेद हैं और स्थिति आदिकी अपेक्षा भी अनेक भेद हैं, अतः उनको सूचित करनेके लिए बहुवचनका निर्देश किया है। अपने अवान्तर कर्मोसे भेदको प्राप्त होनेवाले देवगति नामकर्मके उदयकी सामर्थ्यसे जो संग्रह किये जाते हैं वे निकाय कहलाते हैं । निकाय शब्द. का अर्थ संघात है । 'चतुर्णिकाय' में बहुव्रीहि समास है, जिससे देवोंके मुख्य निकाय चार ज्ञात होते हैं । शंका- इन चार निकायोंके क्या नाम हैं ? समाधान - भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक |
8444. अब इनकी लेश्याओंका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंआविके तीन निकायोंमें पीत पर्यन्त चार लेश्याएँ हैं ||2||
1. इति वा तन्नि- मु. 5. इति । जात्य- मु. विशे- मु. ता., ना. ।
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2. विशेषाद् द्वीपा - मु. 3. मुद्रादिषु प्रदे- मु, 4. -- डन्ति ते देवा: मु. । 6. 'जात्यास्यायामेकस्मिन्बहुवचनमन्यतरस्याम् पा. 1, 3, 2, 58
7. स्वधर्म
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