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सर्वार्थसिद्धी
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भवस्थिति प्रमाण है, क्योंकि एक बार जघन्य आयुके साथ भव पाकर उसका अन्य पर्यायमें जाना संभव है । मनुष्योंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पत्योपम है । पृथक्त्व यह रौढिक संज्ञा है । मुख्यतः इसका अर्थ तीनसे ऊपर और नौसे नीचे होता है। यहाँ बहुत अर्थ में पृथक्त्व शब्द आया है। तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है। यह तिर्यंचगति सामान्यकी अपेक्षा उनकी कायस्थिति कही है। यदि अन्य गतिसे आकर कोई जीव निरन्तर तिर्यंचगतिमें परिभ्रमण करता रहता है तो अधिकसे अधिक इतने काल तक वह तिर्यंचगति में रह सकता है। इसके बाद वह नियमसे अन्य गतिमें जन्म लेता है। वैसे तिर्यचोंके अनेक भेद हैं, इसलिए उन भेदोंकी अपेक्षा उनकी कायस्थिति जुदीजुदी है।
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामवाली तत्त्वार्थवृत्तिमें तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥3॥
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