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सर्वार्थसिद्धो
8438. उवतासु भूमिषु मनुष्याणां स्थितिपरिच्छेदार्थमाहनृस्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते ॥38॥।
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$ 439 त्रीणि पल्योपमानि यस्याः सा त्रिपल्योपमा । अन्तर्गतो मुहूर्तो यस्याः सा अन्तमुहूर्ता । यथासंख्येनाभिसंबन्धः । मनुष्याणां परा उत्कृष्टा स्थितिस्त्रिपल्योपमा । अपरा जघन्या अन्तर्मुहूर्ता | मध्ये अनेकविकल्पाः । तत्र पल्यं त्रिविधम्--व्यवहारपत्यमुद्धारवल्यमद्वापत्यमिति अन्वर्थसंज्ञा एताः । आद्यं व्यवहारपल्यमित्युच्यते; उत्तरपत्य' द्वयव्यवहारबीजत्वात् । नानेन किचिपरिच्छेद्यमस्तीति । द्वितीयमुद्धारपल्यम् । तत उद्धृतैर्लोमकच्छेदेद्वीपसमुद्राः संख्यायन्त इति । तृतीयमद्धापल्यम् । अद्धा काल स्थितिरित्यर्थः । तत्राद्यस्य प्रमाणं कथ्यते, तत्परिच्छेदनार्थत्वात् । तद्यथा - प्रमाणाङ्गुलपरिमितयोजनविष्कम्भायामावगाहानि त्रीणि पल्यानि कुशला इत्यर्थः । एकादिसप्तान्ताहोरात्रजाताविवालाग्राणि तावच्छिन्नानि यावद्वितीयं कर्तरिच्छेदं 'नावानुवन्ति तादृशैर्लोमच्छेदैः परिपूर्ण 'घनीकृतं व्यवहारपत्यमित्युच्यते । ततो वर्षशते वर्षशते " गते एकैकोमापकर्षणविधिना यावता कालेन तद्रिक्तं भवेत्तावान्कालो व्यवहारपल्योपमाख्यः । नरेव लोमच्छेवैः प्रत्येकम संख्ये यवर्ष कोटी समयमा त्रच्छिन्नैस्तत्पूर्ण मुद्धारपत्यम् । ततः समये समये एकैकस्मिन् रोमच्छेदेऽपकृष्यमाणे यावता कालेन तद्रिक्तं भवति तावान्काल उद्धारपल्योपमाख्यः । एषामुद्धारपत्यानां दशकोटीकोटथ एकमुद्धारसागरोपमम् । अर्धतृतीयोद्धारसागरोपमानां यावन्तो
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5 विदेह और 5 ऐरावत ये 15 कर्मभूमियाँ हैं और शेष 30 भोगभूमियाँ हैं । ये सब कर्मभूमि और भोगभूमि क्यों कहलाती हैं इस बातका निर्देश मूल टीकामें किया ही है ।
8438. उक्त भूमियोंमें स्थितिका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंमनुष्योंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है ॥38॥
$ 439 'त्रिपल्योपमा' इस वाक्य में 'त्रि' और 'पल्योपम' का बहुव्रीहि समास है । मुहूर्त के भीतर के कालको अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। पर और अपर के साथ इन दोनोंका क्रमसे सम्बन्ध है । मनुष्योंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम है और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है । तथा मध्यकी स्थिति अनेक प्रकारकी है । पल्य तीन प्रकारका है-व्यवहार पल्य, उद्धरपल्य और अद्धापल्य । ये तीनों सार्थक नाम हैं। आदिके पल्यको व्यवहारपल्य कहते हैं, क्योंकि वह आगेके दो पल्यों के व्यवहारका मूल है । इसके द्वारा और किसी वस्तुका परिमाण नहीं किया जाता। दूसरा उद्धारपल्य है । उद्धारपल्य में से निकाले गये लोमके छेदोंके द्वारा द्वीप और समुद्रोंकी गिनती की जाती है । तीसरा अद्धापल्य है । अद्धा और कालस्थिति ये एकार्थवाची शब्द हैं। इनमें से अब प्रथम पत्यका प्रमाण कहते हैं-जो इस प्रकार है- प्रमाणांगुलकी गणनासे एक-एक योजन लम्बे, चौड़े और गहरे तीन गढ़ा करो और इनमें से एकमें एक दिनसे लेकर सात दिन तकके पैदा हुए मेढ़ के रोमोंके अग्र भागोको ऐसे टुकड़े करके भरो जिससे कैंची से उनके दूसरे टुकड़े न किये जा सकें । अनन्तर सौ-सौ वर्ष में एक-एक रोमका टुकड़ा निकालो। इस विधिसे जितने कालमें वह गढ़ा खाली हो वह सब काल व्यवहार पत्योपम नामसे कहा जाता है । अनन्तर असंख्यात करोड़ वर्षोंके जितने समय हों उतने उन लोमच्छेदों में से प्रत्येक खण्ड करके उनसे दूसरे गढ़ के भरनेपर उद्धारपल्य होता है । और इसमें से प्रत्येक समय में एक-एक रोमको निकाल हुए जितने काल में वह गढ़ा खाली हो जाये उतने कालका नाम उद्धार पल्योपम है । इन दस कोड़ाकोड़ी उद्धार1. मिषु स्थिति-- मु. 2. दृयस्य व्यव -- मु. 3. कथ्यते । तद्यथा मु. । 4. नाप्नु- मु. 1 5. घनीभूतं मु. 1 6 ततो वर्षशते एकैक -- मु. ।
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