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सर्वार्थसिद्धौ 288
[3136 § 435
न्तेषु द्वीपा: षड्योजनशतेषु गतेषु भवन्ति । विभु द्वीपाः शतयोजनविस्ताराः । विविश्वन्तरेषु च द्वीपास्तदर्धविष्कम्भाः । शैलान्तेषु पञ्चविंशतियोजनविस्ताराः । तत्र पूर्वस्यां विश्येकोरुकाः । अपरस्यां दिशि लाङ्गूलिनः । उत्तरस्यां ' 'विश्यभाषकाः । दक्षिणस्यां दिशि विषाणिनः । शशकर्णशष्कुलीकर्णप्रावरणकर्णलम्बकर्णाः विदिक्षु । अश्वसहश्वमहिषवराहव्याघ्र 'काककपिमुखा अन्तरेषु । मेघ' मुखविद्युन्मुखाः शिखरिण उभयोरन्तयोः । मत्स्यमुखकालमुखा हिमवत उभयोरन्तयोः । हस्तिमुखादर्शमुखा उत्तरविजयार्धस्योभयोरन्तयोः । गोमुखमेषमुखा 'दक्षिणविजयार्धस्योभयोरन्तयोः । एकोरुका मृदाहारा गुहावासिनः । शेषाः पुष्पफलाहारा वृक्षवासिनः । सर्वे ते पल्योमायुषः । ते चतुविशतिरपि' द्वीपा जलतलावेकयोजनोत्सेधाः । लवणोदधेर्बाह्यपार्श्वेऽप्येवं चतुविशतिद्वीपा विज्ञातव्याः । तथा कालोवेऽपि वेदितव्याः । त एतेऽन्तर्वोपजा म्लेच्छाः । कर्मभूमिजाश्च शकयवनशबरपुलिन्दादयः ।
तिरछे पाँचसौ योजन भीतर जाकर हैं । विदिशाओं और अन्तरालों में जो द्वीप हैं वे पाँचसौ पचास योजन भीतर जाकर हैं । तथा पर्वतोंके अन्तमें जो द्वीप हैं वे छहसौ योजन भीतर जाकर हैं। दिशाओंमें स्थित द्वीपोंका विस्तार सौ योजन है। विदिशाओं और अन्तरालोंमें स्थित द्वीपोंका विस्तार उससे आधा अर्थात् पचास योजन है। तथा पर्वतोंके अन्तमें स्थित द्वीपोंका विस्तार पच्चीस योजन है। पूर्व दिशामें एक टाँगवाले मनुष्य हैं। पश्चिम दिशा में पूंछवाले मनुष्य हैं। उत्तर दिशामें गूंगे मनुष्य हैं और दक्षिण दिशामें सींगवाले मनुष्य हैं। चारों विदिशाओंमें क्रमसे खरगोशके समान कानवाले, शष्कुली अर्थात् मछलो अथवा पूड़ोके समान कानवाले, प्रावरणके समान कानवाले और लम्बे कानवाले मनुष्य हैं । आठों अन्तरालके द्वीपोंमें क्रमसे घोड़े के समान मुखवाले, सिंहके समान मुखवाले, कुत्तोंके समान मुखवाले, भैंसाके समान मुखवाले, सुअरके समान मुखवाले, व्याघ्रके समान मुखवाले, कौआके समान मुखवाले और बन्दरके समान मुखवाले मनुष्य हैं । शिखरी पर्वतके दोनों कोणोंकी सीध में जो अन्तद्वीप है उनमें मेघके समान मुखवाले और बिजली के समान मुखवाले मनुष्य हैं। हिमवान् पर्वतके दोनों कोणोंकी सीध में जो अन्तद्वीप हैं उनमें मछलीके समान मुखवाले और कालके समान मुखवाले मनुष्य हैं। उत्तर विजयार्धके दोनों कोणोंकी सीधमें जो अन्तद्वीप हैं उनमें हाथीके समान मुखवाले और दर्पणके समान मुखवाले मनुष्य हैं। तथा दक्षिण विजयार्ध के दोनों कोणोंकी सीधमें जो अन्तद्वीप हैं उनमें गायके समान मुखवाले और मेढाके समान मुखवाले मनुष्य हैं। इनमें से एक टाँगवाले मनुष्य गुफाओं में निवास करते हैं और मिट्टीका आहार करते हैं तथा शेष मनुष्य फूलों और फलों का आहार करते हैं और पेड़ोंपर रहते हैं । इन सबकी आयु एक पल्योपम है । ये चौबीसों अन्तद्वीप जलकी सतह से एक योजन ऊँचे हैं । इसी प्रकार कालोद समुद्रमें भी जानना चाहिए। ये सब अन्तद्वपज म्लेच्छ हैं । इनसे अतिरिक्त जो शक, यवन, शबर और पुलिन्दादिक हैं वे सब कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं । विशेषार्थ - षट्खण्डागममें मनुष्योंके दो भेद किये गये हैं— कर्मभूमिज और अकर्मभूमि । अकर्मभूमि भोगभूमिका दूसरा नाम है । भोगभूमिका एक भेद कुभोगभूमि है । उसमें जन्म लेनेवाले मनुष्य ही यहाँ अन्तर्दीपज म्लेच्छ कहे गये हैं। शेष रहे शक, यवन, शबर और पुलिन्द आदि म्लेच्छ कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं । इसी प्रकार आर्य भी क्षेत्रकी अपेक्षा दो भागों में
2. - णस्यां विषा दि.
1. उत्तरस्यामभाषका आ. दि. 1, दि. 2 1 1, दि. 2 । 3. वरणलम्ब मु. 4. काकधूककपि- मु. 5. मेघविद्यु- मु. 6. दक्षिणदिग्विज- मु. 7. -शतिद्वितीयपक्षेऽपि उभयोरतत्प्रष्टचत्वारिंशद्वीपा जलतला - दि. 28 त्सेधाः । तथा कालोवेऽपि आ. दि. 11
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